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________________ [६२ ] बहुत कहने से क्या लाभ है अर्थात् यदि त अपनी इच्छा से उनको सहेगा तो कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त करेगा ।। ३८ ॥ गाथा- पित्तंतमुत्तफेफसकालिजयरूहिरखरिसकिमिजाले । उयरे वसिओसि चिरं नवदसमासेहिं पत्तेहिं ॥३६ ।। छाया- पित्तांत्रमूत्रफेफसयकद्र धिरखरिसकृमिजाले । उदरे वसितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तैः ।। ३६ ॥ अर्थ- हे मुनि ! तूने पित्त, प्रांत, मूत्र, तिल्ली, जिगर, रूधिर, खारिस ( बिना पके खून से मिला बलराम) और कीड़ों के समूह से भरे हुए अपवित्र उदर में अनन्त बार पूरे नौ नौ दस दस महीने तक निवास किया ॥३६॥ गाथा- दियसंगट्टियमसणं आहारिय मायभुत्तमरणांते । छदिखरिसाणमज्मे जठरे वसिरोसि अणणीए ।। ४० ॥ छाया- द्विजसंगस्थितमशनं पाहृत्य मातृभुक्तमन्नांते । छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः॥४०॥ अर्थ- हे जीव ! तूने माता के पेट में दांतों के समीप स्थित और माता के खाने के बाद उसके खाए हुए अन्न को खाकर बमन ( उल्टी) और खरिस (बिना पके रूधिर से मिले बलराम ) के बीच में निवास किया ॥४०॥ गाथा- सिसुकाले य अमाणे असुईमज्झम्मि लोलियोसि तुमं । असुई असिमा बहुसो मुणिवर ! बालत्तपत्तेण ॥४१॥ छाया- शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोऽसि त्वम् । अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर ! बालत्वप्राप्तेन ॥४१ ।। अर्थ-हे मुनिवर ! त अज्ञानमयी बाल्य अवस्था में अपवित्र स्थान में लोटा है। तथा बालकपन के कारण ही बहुत बार अपवित्र वस्तु (मलमूत्रादि ) खा चुका है ॥४१॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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