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________________ [ ५४ ] भावार्थ-पृथ्वीकाय में कुदाल फावड़ा आदि से खोदने से, जलकाय में तपाने से, अग्निकाय में बुझाने से, वायुकाय में हिलाने फटकारने से, वनस्पति काय में छेदने, पकाने से, और त्रसकाय में मारने बांधने आदि से बहुत दुःख पाये ॥१०॥ गाथा - आगन्तुक माणसियं सहजंसारीरियं च चत्तारि । दुक्खाईमणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ॥११॥ छाया- आगन्तुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि। दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोऽसि अनन्तकं कालम् ॥ ११ ॥ अर्थ- हे जीव ! तने मनुष्य गति में अनन्त काल तक आगन्तुक आदि चार प्रकार के दुःख पाये हैं। भावार्थ-अकस्मात् बिजली गिरने आदि के दुःख को आगन्तुक कहते हैं। इच्छित वस्तु न मिलने पर जो दुःख होता है उसे मानसिक कहते हैं । ज्वरादि रोगों के दुःख को सहज कहते हैं । तथा शरीर के छेदने आदि के दुःख को शारीरिक दुःख कहते हैं । इस प्रकार अनेक दुःख मनुष्य गति में प्राप्त होते हैं। गाथा-सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस दुक्खं सुहभावणारहिओ ॥१२॥ छाया- सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्रम् । संप्राप्तोऽसि महायशः ! दुःखं शुभभावनारहितः ।। १२ ॥ अर्थ- हे महायश के धारक ! तूने उत्तम भावना रहित होकर स्वर्गलोक में देव और देवियों के वियोग होने पर बहुत अधिक मानसिक दुःख पाया ॥१२॥ गाथा- कंदप्पमाइयाओ पंचवि असुहादिभावणाई य ।। भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ ॥ १३ ॥ छाया- कान्दीत्यादीः पंचापि अशुभादिभावनाः च । भावयित्वा द्रव्यलिंगी प्रहीणदेवः दिवि जातः ॥ १३ ॥ अर्थ-हे जीव ! त द्रव्यलिंगी होकर कान्दी, किल्विषिको, संमोही, दानवी और आभियोगिकी आदि पांच अशुभ भावनाओं का चिन्तवन करके स्वर्गलोक में नीच देव हुआ ॥ १३॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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