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________________ [ ४३ ] गाथा- मणुयभवे पंचिंदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमे । एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवइ अरहो ॥३६॥ छाया- मनुजभवे पंचेन्द्रियो जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे। एतद्गुणगणयुक्तो गुणमारूढो भवति अर्हन् ॥ ३६॥ अर्थ- मनुष्य गति में पंचेन्द्रिय नामका चौदहवां जीवसमास है। उसमें इन गुणों के समूह सहित तेरहवे गुणस्थान का धारी मनुष्य अर्हन्त कहलाता है ॥३६ गाथा-- जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं । सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगुंछा य दोसो य ॥ ३७॥ दस पाणा पज्जत्ती अट्ठसहस्सा य लक्खणा भणिया। गोखीरसंखधवलं मंसं रूहिरं च सव्वंगे ॥३८ ।। एरिसगुणेहिं सव्वं अइसयवंतं सुपरिमलामोयं । ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स ॥३६॥ छाया- जराव्याधिदुःखरहितः आहारनीहारवर्जितः विमलः । सिंहाणः खेदः स्वेदः नास्ति दुर्गन्धश्च दोषश्च ।। ३७ ।। दश प्राणाः पर्याप्तयः अष्टसहस्राणि च लक्षणानि भणितानि । गोक्षीरशंखधवलं मांसं रूधिरं च सर्वाङ्गे ॥३८॥ ईदृशगुणैः सर्वः अतिशयवान् सुपरिमलामोदः । औदारिकश्च कायः ज्ञातव्यः अहेत्पुरुषस्य ॥ ३६॥ अर्थ-जो बुढ़ापा, रोग आदि दुःखों मे रहित है, आहार तथा मलमूत्र रहित है और जिसमें सिंहाण (नाक का मैल), थूक, पसोना, दुर्गन्ध आदि दोष नहीं हैं। जिसमें १० प्राण, ६ पर्याप्ति और १००८ लक्षण बताये गये हैं । तथा जिसमें सब जगह कपूर और शंख के समान सफेद खून और मांस है। ऐसे सब गुण और अतिशय वाला तथा अत्यन्त सुगन्धित औदारिक शरीर अरहन्त पुरुष के समझना चाहिये । इस प्रकार द्रव्य अरहन्त का वर्णन किया ॥ ३७-३८-३६ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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