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________________ [ ३८ ] -र्थ-जो तप, व्रत और उत्तरगुणों से.शुद्ध है, सब पदार्थों को ठीक ठीक जानता है तथा शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करता है, ऐसा आचार्य जिनबिम्ब है। वही दीक्षा और शिक्षा देने वाली अर्हन्त की मुद्रा है ॥१८॥ गाथा- दढसंजममुहाए इंदियमुद्दा कसायदढमुद्दा। मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसाभणिया ॥१॥ छाया-दृढसंयममुद्रयाइन्द्रियमुद्रा कषायद्रढमुद्रा। मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥१६॥ अर्थ-संयम को स्थिरता से धारण करना सो संयम मुद्रा है, इन्द्रियों को विषयों में न लगने देना सो इन्द्रिय मुद्रा है, कषायों के बस में न होना सो कषायमुद्रा है, ज्ञान के स्वरूप में लीन होना सो ज्ञानमुद्रा है। इनको धारण करनेवाले मुनि को जिनमुद्रा शब्द से कहा गया है ॥१६॥ गाथा-संजमसंजुत्तस्सय सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं ॥२०॥ छाया-संयमसंयुक्तस्य च सुध्यानयोग्यस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्षं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ।।२०।। अर्थ-संयमरहित, उत्तम ध्यान के योग्य मोक्षमार्ग का लक्ष्य (निशाना) आत्मा का स्वरूप ज्ञान से प्राप्त होता है। इसलिए ज्ञान को अवश्य जानना चाहिये ॥२०॥ गाथा-जह णवि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्य वेज्झय विहीणो। तह णवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ॥२१॥ छाया-यथा नापि लभते स्फुट लक्ष रहितः काण्डस्य वेधकविहीनः । तथा नापि लक्षयति लक्ष अज्ञानी मोक्षमार्गस्य ॥२१॥ अर्थ जैसे धनुष विद्या के अभ्यास रहित पुरुष बाण के ठीक निशाने को नहीं पाता है। वैसे ही अज्ञानी पुरुष मोक्षमार्ग के निशाने अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को नहीं पाता है ॥२१॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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