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________________ [ ३६ ] छाया-यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् । सा भवति वंदनीया निम्रन्था संयता प्रतिमा ॥११॥ अथ-जो शुद्ध चारित्र का आचरण करता है, यथार्थ वस्तुओं को ठीक २ जानता है और शुद्ध सम्यक्त्वरूप आत्मा को देखता है, वह परिग्रहरहित संयमी मुनि का स्वरूप जंगम प्रतिमा है, तथा वही नमस्कार करने योग्य है ।।११।। गाथा-दंसण अणंत णाणं अणंतवीरिय अणंतसुक्खाय । सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं ॥१२॥ निरूवममचलमखोहा णिम्मिविया जंगमेण स्वेण। सिद्धठाणम्मि ठिया वोसरपडिमाधुवा सिद्धा ॥१३॥ छाया-दर्शनं अनतं ज्ञानं अनन्तवीर्याः अनन्तसुखाः च । शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टकबन्धैः ॥१२॥ निरूपमा अचला अक्षोभाः निर्मापिता जंगमेन रूपेण । सिद्धस्थाने स्थिनाः व्युत्सर्गप्रतिमाध्रु वाः सिद्धाः ॥१३॥ अर्थ-जो अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्त सुख सहित हैं, अविनाशी सुखस्वरूप हैं, देहरहित हैं, पाठकों के बन्धन से रहित हैं, उपमारहित हैं, चंचलतारहित हैं, अशान्तिरहित हैं, गमनरूप से बनाये गये हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, देहरहित और स्थिर हैं ऐसे सिद्धपरमेष्ठी स्थावर अर्थात् अचल प्रतिमा हैं ॥१२-१३।। गाथा-दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संयमं सुधम्मं च। णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ॥१४॥ छाया-दर्शयति मोक्षमार्ग सम्यक्त्वं संयम सुधर्म च। . निग्रंथं ज्ञानमयं जिनमार्ग दर्शनं भणितम् ॥१४॥ अर्थ-जो सम्यक्त्वरूप, संयमरूप, उत्तमधर्मरूप, परिग्रहरहित और ज्ञानरूप मोक्षमार्ग को दिखाता है ऐसे मुनि के रूप को जैनसिद्धान्त में दर्शन कहा है ॥१४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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