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________________ ॥ (४) बोध पाहुड ॥ गाथा- बहुसत्थअत्थजाणे संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे । वंदित्ता आयरिए कसायमलवजिदे सुद्धे ॥१॥ सयलजणबोहणत्त्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जहभणियं । वुच्छामि समासेण छक्कायसुहंकरं सुणह ॥२॥ छाया- बहुशास्त्रार्थज्ञायकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । वन्दित्वा आचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान् ॥१॥ सकलजनबोधनार्थे जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम् । वक्ष्यामि समासेन षट् कायसुखंकरं शृणु ॥२॥ युग्मम् ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि मैं बहुत से शास्त्रों के अर्थ को जानने वाले, संयम और सम्यक्त्व से पवित्र तपश्चरण वाले, कषायरूपी मल से रहित और शुद्ध आचार्यों को नमस्कार करके, जिन भगवान के द्वारा जैनशास्त्र में छहकाय के जीवों को सुख देने वाला जैसा कथन किया गया है, उसी प्रकार सब जीवों को ज्ञान कराने के लिये बोधपाहुड नामक ग्रन्थ को संक्षेप से कहूंगा । हे भव्यजीव ! तू उसको सुन ॥ १-२ ॥ गाथा- प्रायदणं चेदिहरं जिणपडिमा दसणं च जिणबिंबं । भणियं सुवीयरायं जिणमुद्दा णाणमादत्थं ॥३॥ अरहतेण सुदिटुं जं देवं तित्थमिह य अरहंतं । पावज गुणविसुद्धा हय णायब्वा जहाकमसो॥४॥ छाया-आयतनं चैत्यगृह जिन प्रतिमा दर्शनं च जिनबिम्बम् । भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थम् ॥३॥ अर्हता सुदृष्टं यः देवः तीर्थमिह च अर्हन् । प्रव्रज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्याः यथाक्रमशः॥४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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