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________________ [ ३१ ] छाया- प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । - 'भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥ ४१॥ . अर्थ – जो पुरुष ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल और पवित्र भाव धारण करते हैं वे मोक्षरूपी.महल में निवास करने वाले, तीनों लोक के शिरोमणि सिद्ध ' परमेष्ठी होते हैं ।। ४१ ॥ गाथा- पाणगुणेहिं विहीणा ण लहते ते सुइच्छियं लाह। ___ इय पाउ गुणदोसं तं सरणाणं वियाणेहि ॥ ४२ ॥, छाया- ज्ञानगुणैः विहीना न लभन्ते ते स्विष्टं लाभं । इति ज्ञात्वा गुणदोषौ तत् सद्ज्ञानं विजानीहि ॥ ४२ ॥ अर्थ-जो पुरुष ज्ञानरहित हैं वे अपनी इष्ट वस्तु को प्राप्त नहीं करते हैं । ऐसा * जानकर हे भव्य ! तू गुण दोषों को जानने के लिये सम्यग्ज्ञान को भली प्रकार जान ॥ ४२ ॥ गाथा- चारित्तसमारूढो अप्पासु परंण ईहए णाणी । . -पावइ आइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥ ४३ ॥ छाया- चारित्रसमारूढ आत्मनि परं न ईहते ज्ञानी। प्राप्नोति अचिरेण सुखं अनुपमं जानीहि निश्चयतः ॥ ४३ ॥ अर्थ- जो पुरुष ज्ञानी है और चारित्र गुणसहित है वह आत्मा.में परद्रव्य को नहीं चाहता है अर्थात् उनमें रागद्वष नहीं करता है ।. तथा शीघ्र ही उपमारहित सुख को पाता है ऐसा निश्चयपूर्वक जानो ॥ ४३॥ गाथा- एवं संखेवेण य भणियं णाणेण वीयरायेण । सम्मत्तसंज़मासयदुण्हं पि उदेसियं घरणं ॥४४॥ छाया- एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण।. सम्यक्त्वसंयंमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम् ॥४४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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