SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३ ] अर्थ-जो सूत्र जिनेन्द्र भगवान् से कहा गया है उसको व्यवहार और निश्चय रूप से जानकर योगी अविनाशी सुख को पाता है और कर्मरूपी मैल के समूह को नाश करता है ॥६॥ गाथा-सूत्तत्थपयविणटो मिच्छाइट्ठी हु सो मुणेयम्वो। खेडेवि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स ॥७॥ छाया-सूत्रार्थपदविनष्टः मिथ्यादृष्टिः हि स ज्ञातव्यः। - खेलेऽपि न कर्तव्यं पाणिपात्रं सचेलस्य ॥७॥ अर्थ-जो पुरुष सूत्र के अर्थ और पद से रहित है अर्थात् दिगम्बर मुद्रारहित है, उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये। इसलिये वस्त्र सहित मुनि को हंसी में भी पाणिपात्र भोजन नहीं करना चाहिये ॥७॥ गाथा-हरिहरतुल्लोवि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। तहवि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥८॥ छाया-हरिहरतुल्यो ऽपि नरः स्वर्ग गच्छति एति भवकोटीः। .. तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ॥८॥ अर्थ-जो पुरुष सूत्र के अर्थ से भ्रष्ट है वह हरिहरादि के समान विभूति वाला भी स्वर्ग में उत्पन्न होता है, किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं करता है तथा दानादिक के फल से स्वर्ग में उत्पन्न होकर करोड़ों भव तक संसार में ही घूमता रहता है ॥८॥ गाथा- उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो या जो विहरइ सच्छंद पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं ॥६॥ छाया-उत्कृष्टसिंहचरितः बहुपरिकर्मा च गुरूभारश्च । यः विहरति स्वच्छन्दं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ॥६॥ अर्थ-जो उत्कृष्ट सिंह के समान निर्भय आचरण करता है, बहुत सी तपश्चरणादि क्रिया सहित है, गुरु के पद को धारण करता है और स्वच्छन्द रूप से --- भ्रमण करता है वह पापी मिथ्या दृष्टि है ॥६॥ गाथा-णिच्चेलपाणिपत्नं उवइटुं परमजिणवरिंदेहिं । एक्को विमोक्खमग्गो सेसा य श्रमग्गया सव्वे ॥१०॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy