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________________ [ ६ ] छाया- एकं जिनस्य रूपं द्वितीयं उत्कृष्टश्रावकाणां तु । __ अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुनः लिंगदर्शनं नास्ति ।। १८ ॥ अर्थ-जिनमत में तीन लिंग ( भेष) बताये हैं। उनमें पहला तो जिनेन्द्रदेव का निम्रन्थलिंग है। दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक का है और तीसस भेष आर्यिका ..का है। इसके सिवाय चौथा भेष कोई नहीं है ॥ १८ ॥ गाथा- छह दव्व णवपयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिहिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सहिट्ठी मुणेयव्वो ॥ १६ ॥ छाया- षट् द्रव्याणि नव पदार्थाः पंचास्तिकायाः सप्ततत्वानि निर्दिष्टानि । श्रद्दधाति तेषां रूपं स सदृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ १६ ॥ अर्थ-छह द्रव्य, नव पदार्थ, पांच अस्तिकाय, और सात तत्व जैन शास्त्रों में बताये गये हैं। जो पुरुष इनका यथार्थ श्रद्धान करता है उसको सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये ॥१६॥ गाथा-जीवादी सहहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥२०॥ छाया- जीवादीनां श्रद्धानं सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । व्यवहारात् निश्चयतः आत्मैव भवति सम्यक्त्वम् ॥२०॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने जीवादि सात तत्त्वों के श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन बताया है और केवल शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करना सो निश्चय सम्यग्दर्शन है ॥२०॥ गाथा- एवं जिणपण्णत्त दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ छाया- एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन । सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥ अर्थ-इस प्रकार जिन भगवान का कहा हुआ सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में उत्तम रत्न है और मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है। इसलिये हे भव्यजीवो! तुम इस सम्यग्दर्शन को अन्तरङ्ग भाव से (भक्तिपूर्वक ) धारण करो ॥२१॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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