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________________ [१९] यथा योग्य आदर करना, (८) प्रभावना-धर्म का माहात्म्य प्रगट करना। जैन धर्म का विशेष वर्णन करते हुए अ०३ गा० ११ तथा १२ में लिखा है कि इस के अनुयायियों में वात्सल्य, विनय, अनुकम्पा, सुदान, पररक्षा, और सरलता होनी चाहिये । अ०६ गाथा ९० में लिखा है कि अहिंसा धर्म, निर्दोष देव तथा निर्ग्रन्थ गुरु में श्रद्धान करना सम्यक् दर्शन है। सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र से आत्म श्रद्धान होता है। आचरण मनोवृत्ति के आधीन है और सारा ५ वा अध्याय इस बात को पुष्ट करता है कि ज्ञान और चारित्र चाहे कितना भी अधिक और निर्दोष हो, शुद्ध भावों के बिना सब व्यर्थ है। शुद्ध भावों में प्रमाद, अज्ञान, तथा मूढता को बिल्कुल स्थान नहीं है । आत्मा को शरीर तथा इन्द्रिय की सहायता के बिना स्वतंत्रता से कार्य करने का अभ्यास होना चाहिए । आत्मिक उन्नति में कुल तथा जाति की कोई गणना नहीं है । सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा में सन्निहित होते हैं । दर्शन का अथे श्रात्मानुभव है सम्यग्ज्ञान प्रात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने को कहते हैं। सम्यक चारित्र आत्मा की शुद्धता की पूति का नाम है दर्शन-ज्ञान और चारित्र एक दूसरे के पोषक हैं। (अ. ३ गा० १८) (अ० ४ गा० ८३) बिना दर्शन के चारित्र व्यर्थ है (अ०३ गा० १०) शुद्ध चारित्र के लिए ज्ञान के साथ स्पष्ट और शुद्ध विचार भी आवश्यक हैं (अ०३ गा०४१) शुद्ध आचरण के बिना ज्ञान तथा आत्म संयम के बिना तप निष्फल है (अ.८ गा० ३७) अरहंत भक्ति, अनुभवद्वारा शुद्ध दर्शन, इन्द्रिय विषय से विरक्ति और शील ये सब सम्यग्ज्ञान के ही रूप हैं (अ० ८ गा० ४०) जीवित प्राणियों पर दया, इन्द्रिय दमन, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और तप ये शील का परिवार है (८-१९) नियंत्रण के लिए निश्चित व्रत आवश्यक है। जिनकी कठिनता मनुष्य की सहन शक्ति के अनुसार होनी चाहिये (६-४३) गृहस्थी और साधु के लिए भिन्न भिन्न प्रतिज्ञाएं उपदिष्ट हैं (अ०७ गा० २४, २५, २६) नियमों का पालन ग्रहस्थों के लिये भी काफी कठिन है किन्तु मुनियों के लिए तो इसका रूप वास्तव में ... शरीर की चिन्ता या विचार का पूर्ण त्याग ही है। जैन धर्म को कुछ लोग-pessimistic अथवा उदासीन और संसार को केवल दुःख रूप कहने वाला धर्म कहते हैं, किन्तु इन शब्दों का प्रयोग जिस अर्थ में वे साधारणतया प्रयुक्त करते हैं, जैन सिद्धान्त के लिए लागू नहीं है। जैन धर्म में जीवन को बला समझकर त्यागने और मृत्यु के अनन्तर प्रसन्नता पूर्वक जीवन'. की सत्ता का कोई विचार नही है । जैन धर्म जिस आनन्द को मानता है वह परमानन्द इसे इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है । परिग्रह का त्याग परमार्थ समझ कर नहीं किया जाता बल्कि इसलिए कि सांसारिक परिग्रह जीवन
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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