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________________ [१४७] छाया- सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिताः सनोविशुद्धाः। ___ प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाः प्रकटाः ॥३॥ अर्थ-जहां मूल गुण और उत्तर गुणों के द्वारा कर्मों को क्षीण (कमजोर ) किया जाता है, जो सुख दुःख रहित है, जहां मन पवित्र रहता है और कर्मरूपी धूल नष्ट कर दी जाती है-ऐसी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप चार आराधना अन्तिम समय शील के द्वारा ही प्रगट होती हैं ॥३॥ गाथा- अरहंते सुहभत्ती सम्मत्तं दसणेण सुविसुद्धं । सीलं विसयविरागो गाणं पुण केरिसं भणियं ॥४०॥ . छाया- अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धम् । शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितम् ? ॥४॥ अर्थ-अर्हन्त भगवान में उत्तम भक्ति करना सो सम्यक्त्व कहलाता है, वह तत्वों के समीचीन श्रद्धान से पवित्र है। तथा इन्द्रिय विषयों से विरक्त होना सो शील है और सम्यक्त्व तथा शील के साथ पदार्थों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यक्त्व और शील से भिन्न कोई ज्ञान नहीं बताया गया है अर्थात् इनके बिना जो ज्ञान है वह मिथ्याज्ञान कहा जाता है ॥ ४० ॥ भावार्थ-इस प्रकार सम्यग्दर्शन और शील के साथ ज्ञान की महिमा का वर्णन करने से आत्मा के पवित्र गुणों का स्मरण होता है जो निर्वाण पद को प्राप्त कराने वाला है और यही अन्तिम मंगल है। ऐसा उत्तम शील संसार में जयवन्त हो ॥ ॥ इति शुभम् ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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