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________________ [१४४] गाथा-सुहणाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो। जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहिं सव्वेहिं ॥ २६ ।। छाया-शुनां गर्दभानां च गोपशुमहिलानां दृश्यते मोक्षः । ये साधयन्ति चतुर्थं दृश्यमानाः जनैः सर्वैः ॥ २६ ॥ अर्थ- आचार्य कहते हैं कि क्या कहीं कुत्तों, गधों, गाय आदि पशुओं और स्त्रियों को मोक्ष होता देखा गया है अर्थात् नहीं। किन्तु जो चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) को सिद्ध करते हैं वे शीलवान मनुष्य ही सब लोगों के द्वारा मोक्ष प्राप्त करते देखे गए हैं ॥२६॥ गाथा- जइ विसयलोलएहिं णाणीहिं हविज साहिदो मोक्खो । तो सो सच्चइपुत्तो दसपुत्वीओ वि किं गदो णरयं ॥ ३० ।। छाया- यदि विषयलोलैः ज्ञानिभिः भवेत् साधितः मोक्षः । तर्हि सः सात्यकिपुत्रः दशपूर्विकः किं गतः नरकम् ॥ ३० ॥ अर्थ- यदि विषयों के लोलुपी और ज्ञानी पुरुषों को मोक्ष प्राप्त होना मान लिया जाय तो देश पूर्व का ज्ञानी वह सात्यकिपुत्र नरक में क्यों गया ।। ३० ॥ '. गाथा- जइ णाणेण विसोहो सीलेण विणा बुहेहिं णिट्ठिो । दसपुश्वियस्स भावो य ण किं णिम्मलो जादो ॥ ३१ ॥ छाया- यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्निर्दिष्टः । दशपूर्विकस्य भावः च न किं निर्मलः जातः ॥ ३१ ।। अर्थ- यदि बुद्धिमानों ने शील के बिना ज्ञान ही के द्वारा शुद्ध भाव का होना बताया है तो दश पूर्वशास्त्र को जानने वाले रूद्र का भाव निर्मल क्यों नहीं हुआ। इस लिए भावों की शुद्धता में शील ही प्रधान कारण है ।। ३१ ।। गाथा- जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा । ता लेहदि अरूहपयं भणियं जिणवड्ढमाणेण ॥ ३२ ।।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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