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________________ [ १४२ ] गाथा - वारि कम्मिय जम्मे सरिज्ज विसवेयरणाहदो जीवो । वियविपरिया गं भमंति संसारकांतारे ॥ २२ ॥ छाया - वारे एकस्मिन् च जन्मनि गच्छेत् विषवेदनाहतः जीवः । विषयविषपरिहता भ्रमन्ति संसारकान्तारे ।। २२ ॥ अर्थ - विष की पीड़ा से मरा हुआ जीव तो एक ही बार दूसरा जन्म पाता है, मरे हुए जीव संसार रूप बन में किन्तु विषय रूप विष से ही घूमते रहते हैं ।। २२ ।। गाथा - गरएसु वेयरणाओ तिरिक्खए मारगुएस दुक्खाई । देवे य दोहग्गं लहंति विसयासता जीवा ॥ २३ ॥ छाया - नरकेषु वेदनाः तिर्यक्षु मानुषेषु दुःखानि । देवेषु च दौर्भाग्यं लभन्ते विषयासक्ता जीवाः ॥ २३ ॥ अर्थ- इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने वाले जीव नरक गति में हैं तिर्यगति और मनुष्यगति में बहुत दुःख भोगते हैं तथा भी दुर्भाग्य को प्राप्त होते हैं ॥ २३ ॥ वेदना सहते देवगति में गाथा - तुसधम्मंतबलेण य जह दव्वं ग हि गराण गच्छेदि । तवसीलमंत कुसली खपंति विसयं विस व खलं ॥ २४ ॥ छाया - तुषधमब्दलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति । तपः शीलमन्तः कुशलाः क्षिपन्ते विषयं विषमिव खलम् ॥ अर्थ-जैसे तुषों के उड़ाने से मनुष्यों की कोई हानि नहीं होती है, वैसे ही तप और शील को धारण करने वाले चतुर पुरुष विषय रूप विष को खल के समान तुच्छ समझकर फेंक देते हैं अर्थात् उनका त्याग कर देते हैं ।। २४ ॥ गाथा - वसु य खंडेसु य भद्देसु य विसाले अंगेसु । गेय पप्पेय सव्वेसु य उत्तमं सीलं ॥ २५ ॥ छाया - वृत्तेषु च खण्डेषु च भद्रेषु च विशालेषु गेषु । गेषु च प्राप्तेषु च सर्वेषु च उत्तमं शीलम् ।। २५ ।। FC
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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