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________________ [ १३४ ] अर्थ- जो मुनि स्त्रियों से निरन्तर प्रेम करता है और दूसरों को दोष लगाता है, वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रहित मुनि तिर्यञ्चयोनि है अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है, मुनि नहीं है ॥१७॥ गाथा- पव्वजहीणगहिणं णेहिं सीसम्मि वहदे बहुसो। आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१८॥ __ छाया-प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्तते बहुशः। आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ १८ ॥ अर्थ-जो मुनि दीक्षारहित गृहस्थ और अपने शिष्य पर बहुत प्रेम रखता है और __ मुनियों की क्रिया तथा गुरुओं की विनय रहित है, वह तिर्यञ्चयोनि है अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है, मुनि नहीं है ॥ १८ ॥ गाथा- एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वहदे णिच्चं । बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥ १६ ॥ छाया- एवं सहितः मुनिवर ! संयतमध्ये वर्तते नित्यम् । बहुलमपि जानन् भावविनष्टः न सः श्रमणः ॥ १६ ॥ अर्थ-हे मुनिवर ! ऐसी क्रियाओं सहित जो लिंगधारी सदा संयमी मुनियों के बीच में रहता है और बहुत से शास्त्रों को भी जानता है किन्तु आत्मा के शुद्ध भावों से रहित है इस लिये वह मुनि नहीं है ॥ १६ ॥ गाथा- ईसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देहि वीसट्ठो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥२०॥ छाया-दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः। पावस्थादपि स्फुटं निकृष्टः भावविनष्टः न सः श्रमणः ।। २० ॥ अर्थ-जो लिंगधारी (दिगम्बर मुनि) स्त्रियों के समूह में विश्वास उत्पन्न करके उनको दर्शन, ज्ञान और चारित्र देता है अर्थात् उनको सम्यक्त्व का स्वरूप समझाता है, शास्त्र पढ़ाता है और व्रत नियमादि का पालन कराता है, वह भ्रष्ट मुनि से भी नीच है । वह निश्चय से शुद्ध भावों से रहित है, इस लिये मुनि नहीं है ॥२०॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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