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________________ [ १३२] अर्थ-जो लिंगी ( नग्नवेषधारी) मुनि तीव्रकषाय वाले कामों से चोरों और झूठ बोलने वालों की लड़ाई और वादविवाद कराता है तथा चौपड शतरंज आदि खेलता है वह नरक में उत्पन्न होता है ॥१०॥ गाथा-दसणणाणचरित्ते तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि। पीडयदि वहमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥ ११ ॥ छाया-दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपः संयमनियमनित्यकर्मसु । पीड्यते वर्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासम् ॥ ११ ॥ अर्थ-जो लिंगधारी मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, संयम, नियम और नित्य क्रियाओं को करता हुआ दुःखी होता है वह नरक में उत्पन्न होता है ॥११॥ गाथा-कंदप्पाइय वदृइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं । 'मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ १२ ॥ छाया-कंदर्पादिषु वर्तते कुर्वाणः भोजनेषु रसगृद्धिम् । मायावी लिंगव्यवायी तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ १२ ॥ अर्थ-जो लिंगधारी मुनि बहुत प्रकार के भोजनों में आसक्त होता हुआ काम सेवनादि क्रियाओं में प्रवृत होता है, वह मायाचारी तथा लिंग को दूषित करने वाला पशु के समान अज्ञानी है, मुनि कदापि नहीं हो सकता ॥१२॥ गाथा- धावदि पिंडणिमित्त कलह काऊण भुंजदे पिंडं ।। अवरूपरूई संतो जिग्णमग्मि ण होइ सो समणो ॥ १३ ॥ छाया- धावति पिण्डनिमित्त कलहं कृत्वा भुंक्त पिण्डम् । __ अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः ॥ १३ ॥ अर्थ- जो मुनि भोजन के लिये दौड़ता है, कलह करके भोजन करता है और दूसरों के दोष कहता है वह मुनि जिनमार्गी नहीं है ॥ १३ ॥ गाथा- गिलदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदोसेहिं । । जिणलिंगं धारतो चोरेण व होइ सो समणो ॥ १४ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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