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________________ [१३०] गाथा-णञ्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । .. सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥४॥ छाया-नृत्यति गायति तावत् वाद्यं वादयति लिंगरूपेण। सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ॥ ४॥ अर्थ-जो मुनि का भेष धारण करके नाचता है, गाता है, और बाजा बजाता है, वह पाप बुद्धि वाला तिर्यञ्च-योनि अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है, मुनि कदापि नहीं हो सकता ॥४॥ गाथा-सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण । __ सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥५॥ छाया-समूहयति रक्षति च आतं ध्यायति बहुप्रयत्नेन । सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योतिः न सः श्रमणः ॥ ५॥ अर्थ-जो मुनि का वेष धारण करके बहुत प्रयत्न से परिग्रह का संग्रह करता है, उसकी रक्षा करता है, उसके लिये आर्तध्यान करता है वह पाप बुद्धिवाला मुनि तिर्यञ्च योनि है अर्थात् पशु के समान अज्ञानी है, मुनि कदापि नहीं हो सकता ॥५॥ गाथा-कलह वादं जूवा णिच्चं बहुमाणगव्विो लिंगी। वजदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ॥ ६॥ छाया-कलह वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वितः लिंगी। व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण ॥६॥ अर्थ-जो लिंगी (नग्नवेषधारी) मुनि अधिक मान से गर्वित हुआ सदैव कलह करता है, वादविवाद करता है तथा जूआ खेलता है वह पापी मुनि के वेष से इन खोटी क्रियाओं को करता हुआ नरक में उत्पन्न होता है ॥६॥ गाथा-पाओपहदभावो सेवदि य प्रबंभु लिंगिरूवेण । सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकांतारे ॥७॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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