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________________ [ ११३] गाथा-चरणं हवइ सधम्मो धम्मोसो हवइ अप्पसमभावो । सो रागरोसरहिरो जीवस्स अणण्ण परिणामो ॥५०॥ छाया-चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः सः भवति आत्मसमभावः । स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥५०॥ अर्थ-चारित्र आत्मा का धर्म (स्वरूप) है और वह धर्म सब जीवों में समानभाव रखना है। वह रागद्वेषरहित चारित्र जीव का ही अभिन्न परिणाम है ॥५०॥ गाथा-जहफलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो। . तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ॥५१॥ छाया-यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतः भवत्यन्यः सः । तथा रागादिवियुक्तः जीवः भवति स्फुटमन्यान्यविधः ॥५१॥ अर्थ-जैसे स्फटिकमणि स्वभाव से निर्मल होता है और रंग बिरंगी दूसरी वस्तु के सम्बन्ध से दूसरे ही रंग का दिखने लगता है। वैसे ही स्वभाव से शुद्ध जीव रागद्वेषादि भावों के सम्बन्ध से दूसरी ही तरह का दिखने लगता है ॥ ५१ । गाथा-देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मि य संजदेसु अणुरत्तो। . ... सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरो होइ जोई सो ।। ५२ ।। छाया-देवे गुरौ च भक्तः साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्तः । सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥ ५२ ॥ अर्थ-देव और गुरू में भक्ति करने वाला, समान धर्म वालों और संयमी मुनियो में सच्चा प्रेम रखने वाला और सम्यक्त्व को धारण करता हुआ योगी ध्यान में लीन होता है ।। ५२ ।। गाथा-उग्गतवेणगणाणी जं कम खवदि भवहि बहुएहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥ ५३ ।।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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