SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१०] जाने लगा, और उसकी स्मृति में आज भी प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक कार्य उस मंगलाचरण को प्रारम्भ करके किए जाते हैं जो पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर है। यह अद्वितीय सम्मान केवल श्री कुन्दकुन्द को भगवान महावीर के ५०० वर्षे मोक्ष जाने के बाद प्राप्त हुआ। ऊपर श्री उमाहवाति का वर्णन आया है जो श्री कुन्दकुन्द के शिष्य थे, उनकी रचना 'तत्वार्थ सूत्र' भगवत् की रचनाओं पर निर्धारित थी जिस रचना को जैन विद्वान बड़े गौरव और सम्मान द्वारा देखते हैं, किन्तु इसका व्यवहार विवादग्रस्त विषयों को निश्चित करने के लिए प्रमाण तथा सूत्रों के आधार पर सिद्धांत की व्याख्या करना है। इसके विपरीत श्री कुन्दकुन्द एक उत्साही लेखक, साधु बुद्धिमान् कवि, उपदेशक तथा सभी कुछ थे। उनकी रचनाएं केवल शिक्षा तक सीमित न थीं बल्कि पाठकों में श्रद्धा, उत्साह और उन्नति पैदा करके उनको ऊपर उठाती थीं। श्री उमास्वाति की रचना एक दार्शनिक तथा सिद्धान्त को एक वैज्ञानिक ढंग से पेश करती है। विद्वानों में भगवत् कुन्दकुन्द के समय के विषय में काफी मतभेद है। उनका समय ईसा की ३ शताब्दी से लेकर ५ वीं शताब्दी के बाद तक बतलाया जाता है। प्रो० उपाध्याय ने भारतीय तथा यूरोपियन विद्वानों की सम्मति को समक्ष रखकर तथा तमाम उपलब्ध सामग्री को आलोचनात्मक दृष्टि से अनुसंधान करके भगवत् कंदकुंद का समय ईसा के समय के लगभग माना है । दिगम्बर तथा श्वेताम्बरों के पास जो भगवान महावीर के उत्तराधिकारियों की पट्टावली हैं जिसमें श्री कुन्दकुन्द तक तथा उनके पश्चात् होने वाल उत्तराधिकारियों का वर्णन है, वे एक विशेष प्रमाण हैं। प्रो० उपाध्याय इन पट्टावलियों को ही केवल प्रमाणिक नहीं समझते, लेकिन प्रो. चक्रवर्ती अपने पंचास्तिकाय के संस्करण में उन पट्टावलियों को जिस रूप में उन्हें एक यूरोपियन विद्वान् द्वारा जाँच करने के बाद रखा गया है, ठीक मानते हैं। इन पट्टावलियों के आधार पर श्री कुन्दकुन्द का जन्म ईसा से ५२ वर्ष हुआ था और ४४ वर्ष की आयु में अर्थात ईसा से ९ वर्ष पूर्व उन्होंने आचार्य पद ग्रहण किया था। उन्होंने ५० वर्ष तक अर्थात् ईसा के ४२ वर्ष बाद तक इस पद को सुशोभित किया । इससे स्पष्ट होता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में उनके दीर्घ जीवन का महत् भाग व्यतीत हुआ। इससे पट्टालियों की विशेष पुष्टता और उनका ठीक होना सिद्ध होता है. जबतक और संतोषजनक प्रमाणों के आधार पर उनका दोबारा जांचकर उनका संशोधन न किया जावे, साधारण मनुष्यों के लिए पट्टावलियों का उसी प्रकार से मानना उचित होगा। अब ‘बोध पाहुड' की अन्तिम दो गाथा जो इसी विषय से सम्बन्धित हैं उन पर विचार किया जाता है । ६१ वीं गाथा श्री भद्रबाहु के एक शिष्य के सम्बन्ध
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy