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________________ [ १११ ] गाथा - जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए । सो पावइ परमपयं भायंतो अप्पयं सुद्धं ॥ ४३ ॥ छाया—यः रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या । सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् श्रात्मानं शुद्धम् ॥ ४३ ॥ अर्थ- जो संयमी मुनि रत्नत्रय को धारण करके अपनी शक्ति के अनुसार तप करता है, वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है ||४३|| गाथा - तिहि तिरण धरवि णिचं तियरहिओ तह तियेरग परियरिओ । दोदोसविप्पमुक्कको परमप्पा झायए जोई ||४४ || छाया - त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिकरितः । द्विदोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी ||४४ ॥ अर्थ - ध्यानी मुनि मन, वचन काय से वर्षा, गर्मी सरदी आदि तीनों कालों में योग (समाधि) धारण करके सदैव माया, मिध्यात्व, निदान इन तीन शल्यों का त्याग करता है । तथा रत्नत्रय से सुशोभित और रागद्वेषरूप दोषों से रहित होकर परमात्मा का ध्यान करता है || ४४ || गाथा - मयमायकोहर हिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो । म्मिल सहावत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं ॥४५॥ छाया - मदमायाक्रोधरहितः लोभेन विवर्जितश्च यः जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ||४५॥ अर्थ - जो जीव मद, माया, क्रोध और लोभरहित है, वह निर्मल स्वभावसहित होकर उत्तम सुख अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है || ४५ || गाथा - विसयकसाएहिं जुदो रुद्दो परमप्पभावर हियमणो । सो.ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो ||४६||
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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