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________________ [१०८] अर्थ-रेसा जानकर योगी व्यवहार के सब कामों को बिलकुल छोड़ देता है और जैसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है उसी प्रकार परमात्मा का ध्यान करता है ॥ ३२॥ गाथा-पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सदा कुणह ॥ ३३ ॥ छाया-पंचमहाव्रतयुक्तः पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु। . रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ।। ३३॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि हे मुनि ! तू पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति तथा रत्नत्रय को धारण करके ध्यान और अध्ययन (शास्त्र पढ़ना) का अभ्यास कर ॥ ३३ ॥ गाथा-रयणत्तयमाराहं जीवो आराहो मुणेयव्वो। आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥ ३४ ॥ छाया-रत्यत्रयमाराधयन् जीवः आराधकः मुनितव्यः । आराधनाविधानं तस्य फलं केवलज्ञानम् ॥ ३४ ॥ अर्थ-रत्नत्रय की आराधना करने वाले जीव को आराधक समझना चाहिये तथा आराधना करने का फल केवल ज्ञान है ॥ ३४ ॥ गाथा-सिद्धो सुद्धो आदा सव्वाह सव्वलोयदरसी य । सा जिणवरेहिं भणियो जाण तुमं केवलं गाणं ॥ ३५ ॥ छाया-सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । ___ स जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम् ।। ३५ ।। अर्थ-जो स्वयं सिद्ध है, कर्ममलरहित है, सब पदार्थों को जानने वाला और देखने वाला है, ऐसा आत्मा का स्वरूप जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा गया है । हे मुनि ! तू उस आत्मा को केवल ज्ञान जान, अथवा केवल ज्ञान को आत्मा जान । इस प्रकार अभेद नय से गुण गुणी का वर्णन किया॥३५॥ .. ....
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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