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________________ [८] और श्री अमृतचन्द्र की कीर्ति को अक्षुण्ण बनाए रखने का केवल यही मार्ग है कि इन गाथाओं को पीछे से मिला हुआ माना जावे उस समय तक जबतक इसके विरुद्ध दूसरे प्रमाण न मिलें। सूत्र पाहुड में नग्नता के सम्बन्ध में सारी गाथाएं प्रकरण विरुद्ध हैं प्रो. उपाध्याय ने इस बात पर ध्यान दिया है। उनका कहना है कि पुस्तक के एक संग्रह ग्रंथ होने के कारण ऐसा होना सम्भव है। दिगम्बर और श्वेताम्बर मतभेद से पहले द्वादशांग जिस रूप में था श्री कुन्दकुन्द विरचित 'अष्ट पाहुड' उसको संक्षेप में वर्णन करने के लिए मूल ग्रंथ है। इसलिए विवाद को उसमें कोई स्थान नहीं मिल सकता था। भगवत् । कुन्दकुन्द ने अपने विचार 'चरित्र पाहुड' तथा अन्य रचनाओं में बिल्कुल स्पष्ट कर दिये हैं। प्रो. थोमस का भी इन समावेषित गाथाभों पर ध्यान गया, इसका कारण उन्होंने समय के तीव्र मतभेद को समझा था । श्री कुंदकुंद ने अपनी रचनाओं में प्रतिपक्षी सम्प्रदाय के साथ किसी विवाद अम्त विषय पर जोर नहीं दिया। वास्तव में उनकी रचनाओं में अन्य धर्म सम्बन्धी व्यवहारों का उल्लेख बहुत ही कम है । इस विषय पर उनके सर्व साधारण विचार 'नियमसार' की ११-१५५ गाथा में स्पष्ट है । जिसमें उन्होंने हर प्रकार के धार्मिक विवाद को निंद्य बतलाया है जैसा कि निम्न गाथा से प्रतीत होता है:- ..... नाना जीवा नाना कम नाना विधा भवेल्लब्धिः। तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैवजनीयः ।। "विश्व में असंख्य जीव हैं, अगणित कर्म हैं, और लब्धि के अनेक मार्ग हैं, इसलिए अपने तथा दूसरों के धर्म के बीच विवाद त्याज्य है।" यह समझना न्याय संगत है कि यदि ये गाथाएं पीछे से मिलाई हुई नहीं हैं तो वे भी कुंदकंद के दीर्घ लेखन काल के उस पद को प्रकाशित करती हैं जिसको वे उल्लंघन कर चुके थे। ग्रंथ में गाथा ८-२९ भी अप्राकरणिक और असंगत है, यदि यह ठीक है तो श्री कुंदकुंद को स्त्रियों से घृणा तथा जोर की कड़वाहट थी, किन्तु यह बात सत्य से बहुत दूर प्रतीत होती है और उनकी सारी रचनाओं की विरोधी है। यह मुश्किल से आशा की जा सकती है कि श्री कुन्दकुन्द अपने पूज्य आराध्य देव भगवान महावीर के जीवनकाल में चंदना सती की घटना को भूल गए हों जो घटना एक अभागी कन्या के प्रति मृदुता तथा कोमलता से प्रख्यात थी। गाथा ५-७६ तथा ७७ श्रुत सागर सूरि की टीका में नहीं मिलती इसलिए इन गाथाओं की भी श्री कुन्दकुन्द द्वारा रचना संदिग्ध है।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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