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________________ [७] . अर्थ-हे मुनि ! तू दस प्रकार की काम अवस्था को छोड़कर , प्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रकट कर, क्योंकि तुने कामसेवन में आसक्त होकर इस भयानक संसार समुद्र में भ्रमण किया है ॥८॥ गाथा-भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाचउक्कं च । __ भावरहिदो य मुणिवर भवइ चिरं दीहसंसारे ।। ६६ ॥ छाया-भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च। भावरहितश्च मुनिवर ! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे । ॥ ६ ॥ अर्थ-हे मुनिवर ! शुद्धभावसहित मुनियों का स्वामी दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं को पाता है तथा भावरहित मुनि बहुत काल तक इस दीर्घ संसार में भ्रमण करता है ॥ ६ ॥ गाथा-पावंति भावसवणा कल्लाणपरपराइं सोक्खाई। दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए । १०० ।। छाया-प्राप्नुवन्ति भावश्रमणाः कल्याणपरम्पराणि सौख्यानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यक्कुदेवयोनौ ॥ १० ॥ अर्थ-भावलिंगी मुनि अनेक कल्याणों की परम्परा जिसमें ऐसे तीर्थंकरादि के सुखों को पाते हैं । तथा द्रव्यलिंगी मुनि मनुष्य, तिर्यञ्च और खोटे देवों की योनि (गति ) में दुःख पाते हैं ॥ १० ॥ गाथा-छायासदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण । पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥ १०१॥ छाया-षट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं प्रसितं अशुद्धभावेन । प्राप्तो ऽसि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ।। १०१॥ अर्थ-हे मुनि ! तूने अशुद्ध भाव से ४६ दोषों से दूषित आहार ग्रहण किया, जिससे तिर्यश्चगति में पराधीन होकर बहुत दुःख पाया ॥१०१॥ गाथा-सञ्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्पेण ऽधी पभुत्तण । पत्तोसि तिव्वदुक्त्रं अण्णाइकालेण तें चित्त ॥ १०२ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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