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________________ [ ७२ ] गाथा- भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववजिओ सवणो । कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥ ७४ ।। छाया- भावः अपि दिव्यशिवसौख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः ॥ ७४ ॥ अर्थ-शुद्धभाव ही स्वर्गमोक्षादि का सुख दिलाने वाला है, तथा भावरहित मुनि कर्मरूपी मैल से मलिन चित्तवाला, तिर्यश्च गति के योग्य और पापात्मा होता है। गाथा- खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला । ___ चक्कहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभावेण ॥ ७५॥ छाया- खचरामरमनुजकरांजलिमालाभिश्च संस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः सुभावेन ॥७५ ।। अर्थ-उत्तम भाव के द्वारा जीव विद्याधर, देव, मनुष्य आदि के हाथों की अंजुलि से स्तुति की गई बहुत बड़ी चक्रवर्ती राजा की लक्ष्मी को तथा रत्नत्रय को भी प्राप्त करता है। गाथा- भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्यं । असुहं च अट्टरूद्द सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं ॥ ७६ ।। छाया-- भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभः शुद्ध एव ज्ञातव्यः । ___ अशुभश्च आर्तरौद्र शुभः धयं जिनवरेन्द्रैः॥ ७६ ॥ अर्थ-भाव तीन प्रकार का जानना चाहिए- शुभ, अशुभ और शुद्ध । इनमें आत ध्यान और रौद्रध्यान तो अशुभभाव है तथा धर्मध्यान शुभभाव है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। गाथा- सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं । इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ॥ ७७ ।। छाया-शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि सः च ज्ञातव्यः।। इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचर ॥ ७७ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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