SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उनके ऊपर अनुभयस्थान हैं वे सामायिक छेदोपस्थापनाके हैं उनके जघन्य उत्कृष्टके बीचमें परिहारविशुद्धिके स्थान हैं ॥ १९९ ॥ परिहारस्स जहणणं सामयियदुगे पडत चरिमम्हि । तजेडं सट्ठाणे सबविसुद्धस्स तस्सेव ॥ २०० ॥ परिहारस्य जघन्यं सामायिकद्विके पततः चरमे । तज्ज्येष्ठं स्वस्थाने सर्वविशुद्धस्य तस्यैव ॥ २० ॥ अर्थ-परिहार विशुद्धिका जघन्यस्थान सामायिक छेदोपस्थापनामें पड़ते हुए जीवके अन्तसमयमें ही होता है और उसका उत्कृष्टस्थान सबसे विशुद्ध अप्रमत्तगुणस्थानवर्तीके ही एकांतवृद्धिके अन्तसमयमें होता है ॥ २०० ॥ सामयियदुगजहण्णं ओघ अणियट्टिखवगचरिमम्हि । चरिमणियट्टिस्सुवरि पडंत सुहुमस्स सुहुमवरं ॥ २०१॥ सामायिकद्विकजघन्यमोघं अनिवृत्तिक्षपकचरमे । चरमानिवृत्तेरुपरि पततः सूक्ष्मस्य सूक्ष्मवरम् ॥ २०१॥ अर्थ-सामायिक छेदोपस्थापनाका जघन्यस्थान मिथ्यात्वके सन्मुख जीवके संयमके अन्तसमयमें होता है । उसका उत्कृष्टस्थान अनिवृत्तिकरण क्षपकश्रेणीवालेके अन्तसमयमें होता है । और उपशमश्रेणीसे पड़ते हुए सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें अनिवृत्तिकरणके सन्मुख होनेपर सूक्ष्मसांपरायका जघन्यस्थान होता है ॥ २०१॥ खवगसुहुमस्स चरिमे वरं जहाखादमोघजेटं तं । पडिवाददुगा सवे सामाइयछेदपडिबद्धा ॥ २०२॥ क्षपकसूक्ष्मस्य चरमे वरं यथाख्यातमोघज्येष्ठं तत् । प्रतिपातद्विके सर्वाणि सामायिकछेदप्रतिबद्धानि ॥ २०२॥ अर्थ-क्षीणकषायके सन्मुख हुए क्षपक सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें सूक्ष्मसांपरायका उत्कृष्टस्थान होता है और यथाख्यात चारित्रका उत्कृष्ट स्थान सामान्य ( अभेदरूप ) है । तथा प्रतिपात प्रतिपद्यमानके सव स्थान सामायिक छेदोपस्थापनाके ही जानना । क्योंकि सकलसंयमसे भ्रष्ट होनेपर अन्तसमयमें और सकल संयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सामायिक छेदोपस्थापना संयम ही होता है, अन्य परिहार विशुद्धि आदि नहीं होते ॥२०२॥ इसतरह प्रसङ्ग पाकर सामायिक आदि पांचप्रकार सकलचारित्रके स्थान कहे । मुख्यपनेसे प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानमें सम्भव क्षायोपशमिक सकल चारित्रका कथन किया वह समाप्त हुआ।
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy