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________________ ५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । म्लेच्छखण्डको मनुष्य मिध्यादृष्टि से सकल संयमी हुआ उसका जघन्य स्थान है। उसके ऊपर म्लेच्छखण्डका मनुष्य देशसंयतसे सकलसंयमी हुआ उसका उत्कृष्ट स्थान है । उसके बाद भार्यखण्डका मनुष्य देशसंयत से सकलसंयमी हुआ उसका उत्कृष्ट स्थान होता है ॥१९३॥ तत्तणुभट्ठाणे सामाइयछेदजुगलपरिहारे । पविद्धा परिणामा असंखलोगप्पमा होंति ॥ १९४ ॥ ततोनुभयस्थाने सामायिकछेदयुगल परिहारे । प्रतिबद्धाः परिणामा असंख्यलोकप्रमा भवंति ॥ १९४ ॥ 1 अर्थ - उसके वाद अन्तरस्थानों के जानेपर उसके ऊपर अनुभयस्थान हैं । वहां प्रथम मिथ्यादृष्टिसे सकलसंयमी होनेके दूसरे समय में सामायिक छेदोपस्थापनाको जघन्य स्थान होते हैं । उसके ऊपर परिहार विशुद्धिका जघन्यस्थान होता है । यह स्थान परिहारविशुद्धिसे छूटकर सामायिक छेदोपस्थापना के सन्मुख होनेवाले के अन्तसमय में होता है । उसके ऊपर परिहारविशुद्धिका उत्कृष्टस्थान होता है । उसके ऊपर सामायिक छेदोपस्थापनाका उत्कृष्टस्थान है । ये सबस्थान आपसमें असंख्यात लोकगुणे हैं परंतु सब मिलकर असंख्यातलोक प्रमाण सकलसंयमके स्थान होते हैं, क्योंकि असंख्यातके भेद बहुत हैं ॥ १९४ ॥ तत्तो य सुहुमसंजम पडिवज्जय संखसमयमेत्ता हु । ततो दुहाखादं एयविहं संजमं होदि ॥ १९५ ॥ ततश्च सूक्ष्मसंयमं प्रतिवर्ज्य संख्यसमयमात्रा हि । ततस्तु यथाख्यातमेकविधं संयमं भवति ॥ १९५ ॥ अर्थ- उस सामायक छेदोपस्थापना के उत्कृष्ट स्थान से ऊपर असंख्यात लोकमात्र स्थानोंका अन्तरालकर उपशमश्रेणी से उतरते अनिवृत्तिकरण के सन्मुख जीवके अपने अन्तसमय में संभवता सूक्ष्मसांपरायका जघन्यस्थान होता है । उसके ऊपर असंख्यात समयमात्र स्थान जानेपर क्षपक सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमय में सम्भव सूक्ष्मसांपरायका उत्कृष्ट स्थान है । उसके ऊपर असंख्यात लोकमात्र स्थानोंका अन्तरालकर यथाख्यात चारित्रका एक स्थान होता है । यह स्थान सबसे अनन्तगुणी विशुद्धतालिये उपशांतकषाय क्षीणकषाय सयोगी अयोगी होता है । इसमें सबकषायोंका सर्वथा उपशम वा क्षय है इसलिये जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद नहीं हैं ॥ १९५ ॥ १ म्लेच्छखण्ड के उपजे मनुष्य के सकलसंयम इस तरह है कि जो म्लेच्छ मनुष्य चक्रवर्ती के साथ आर्यखण्ड में आवे तव उसको दीक्षा सम्भव है । क्योंकि चक्रवर्तीके विवाहादिकका सम्बन्ध पाया जाता है । अथवा म्लेच्छकी कन्या चक्रवर्ती विवाहता है उसके जो पुत्र हुआ वह मातापक्ष के सम्बन्धसे म्लेंच्छ है उसके दीक्षा सम्भव होसकती है। ।
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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