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________________ ३० राय चन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यानी साकार अनाकार दोनों ही उपयोगवाला होता है । और तीनमें से किसी एक योग में वर्तमान प्रथमसम्यक्त्वको प्रारंभ करसकता है । तेजोलेश्याके जघन्य अंशमें ही वर्तमान जीव प्रथमसम्यक्त्वा प्रारंभक होता है अशुभलेश्या में नहीं होता ॥ १०१ ॥ अंतोमुहुत्तमद्धं सघोवसमेण होदि उवसंतो । ते परं उदओ खलु तिण्णेकदरस्स कम्मस्स ॥ १०२ ॥ अंतर्मुहूर्तमद्धा सर्वोपशमेन भवति उपशांतः । तेन परं उदयः खलु त्रिष्वेकतमस्य कर्मणः ॥ १०२ ॥ अर्थ - अन्तर्मुहूर्त काल तक सब दर्शनमोहका उपशमकर उपशमसम्यग्दृष्टी होता है । उसके बाद तीन दर्शनमोहकीं प्रकृतियोंमेंसे किसी एकका उदय नियमसे होता है ॥ १०२ ॥ उवसमसम्मत्तुवरिं दंसणमोहं तुरंत पूरेदि । उदयिलस्सुदयादो से साणं उदयबाहिरदो ॥ १०३ ॥ उपशमसम्यक्त्वोपरि दर्शनमोहं त्वरितं पूरयति । उदीयमानस्योदयतः शेषाणामुदयबाह्यतः ॥ १०३ ॥ अर्थ — उपशम सम्यक्त्वके अन्तसमय के बाद दर्शनमोहकी अन्तरायामके ऊपरकी द्वितीयस्थितिके निषेकद्रव्यका अपकर्षण करके अन्तरको पूरता है । वहां जिस प्रकृतिका उदय पाया जावे उसका तो उदयावलिके प्रथमनिषेकसे लेकर और उदयहीन प्रकृतियोंका उदयावलिसे बाह्य निषेकसे लेकर उस अपकर्षण किये द्रव्यको अन्तरायाममें वा द्वितीयस्थिति में निक्षेपण करता है ॥ १०३ ॥ उक्तट्ठिदइगभागं समयगदीए विसेसहीणकमं । सासंखाभागे विसेसहीणे खिवदि सवत्थ ॥ १०४ ॥ अपकर्षितैकभागं समयगत्या विशेषहीनक्रमम् । शेषासंख्यभागे विशेषहीने क्षिपति सर्वत्र ॥ १०४॥ अर्थ — उदयवान सम्यक्त्व मोहनीयके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देवै । उनमैंसे एकभागको असंख्यात लोकका भागदेवे उनमें से एक भाग तो उदयावलिके निषेकोंमें चय घटते हुए क्रम से निक्षेपण करना और अपकर्षण किये द्रव्यमें शेष बहुभाग मात्र अपकृष्टवशिष्ट द्रव्य है वह चयकर हीन सब जगह क्षेपण करना ॥ १०४ ॥ यहां चय घटते क्रम से गोपुच्छाकार रचना है । सम्मुदये चलमलिणमगाढं सद्दहदि तच्चयं अत्थं । सहहृदि असन्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ १०५ ॥
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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