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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अन्तरकृतप्रथमतः प्रतिसमयमसंख्यगुणितमुपशाम्यति । गुणसंक्रमेण दर्शनमोहनीयं यावत् प्रथमस्थितिः ॥ ८७ ॥ अर्थ-अन्तरकृत हुआ प्रथमस्थितिके प्रथमसमयसे लेकर उसीके अन्तरसमय तक समय समयके प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये अन्तरायामके ऊपरवर्ती निषेकरूप द्वितीयस्थितिमें रहनेवाला जो दर्शनमोह उसके द्रव्यको गुणसंक्रमण भागहारसे भाजित कर उपशमाता है जब तक पहली स्थिति है ॥ ८७ ।। पढमठिदियावलिपडिआवलिसेसेसु णत्थि आगाला। पडिआगाला मिच्छत्तस्स य गुणसेढिकरणंपि ॥ ८८ ॥ प्रथमस्थितावावलिप्रत्यावलिशेषेषु नास्ति आगालाः । प्रत्यागाला मिथ्यात्वस्य च गुणश्रेणिकरणमपि ॥ ८८ ॥ अर्थ-प्रथमस्थितिमें उदयावलि और एकसमय अधिक द्वितीयावलि बाकी रहे वहां आगाल, प्रत्यागाल और मिथ्यात्वकी गुणश्रेणी नहीं होती । अर्थात् दर्शनमोहके विना अन्यकोंकी गुणश्रेणी होती ही है ॥ ८८ ॥ द्वितीयस्थितिके निषेकोंके द्रव्यको अपक. र्षण कर प्रथमस्थितिके निषेकोंमें प्राप्त करनेको आगाल कहते हैं, प्रथम स्थितिके निषेकद्रव्यको उत्कर्षणकर द्वितीय स्थितिके निषेकोंमें प्राप्त करना उसे प्रत्यागाल कहते हैं । अंतरपढमं पत्ते उपसमणामो हु तत्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवइट्ठादूण कुणदि तदा ॥ ८९ ॥ अंतरप्रथमं प्राप्ते उपशमनाम हि तत्र मिथ्यात्वम् । स्थितिरसखंडेन विना उपस्थापयित्वा करोति तदा ॥ ८९ ॥ अर्थ-इस तरह अनिवृत्तिकरणकालको समाप्त होनेपर उसके वाद अन्तरायामके प्रथमसमयको प्राप्त होते दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इनका उपशम होनेसे यह जीव तत्त्वार्थश्रद्धानरूप उपशम सम्यग्दृष्टी होता है । वहां द्वितीयस्थितिके प्रथमसमयमें मौजूद मिथ्यात्वद्रव्यको स्थितिकांडक अनुभागकांडकके घातके विना गुणसंक्रमणका भाग देकर तीनप्रकार परिणमाता है ॥ १९॥ मिच्छत्तमिस्ससम्मसरूपेण य तत्तिधा य दवादो। सत्तीदो य असंखाणंतेण य होंति भजियकमा ॥९॥ मिथ्यात्वमिश्रसम्यस्वरूपेण च तत्रिधा च द्रव्यतः । शक्तितश्च असंख्यानंतेन च भवंति भजितक्रमाः॥ ९०॥ अर्थ-वह मिथ्यात्वद्रव्य मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वमोहनीयरूप तीनतरहका होता है।
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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