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________________ लब्धिसारः। . मरकतिर्यग्नरायुष्कसवः शक्यो न मोहमुपशमयितुम् । तस्मात् त्रिष्वपि गतिषु न तस्य उत्पादो भवति ॥ ३४७ ॥ अर्थ-नारक तिर्यच मनुष्य आयुके सत्त्व सहित जीव चारित्रमोहके उपशमानेको समर्थ नहीं है इसलिये उपशम श्रेणीसे उतरे सासादनके देवगतिके विना अन्य तीन गतियोंमें उपजना नहीं होता । पहले जिसके आयु बंधा हो उसी सासादनका मरण होता है अबद्धायुका नहीं होता ॥ ३४७ ॥ उवसमसेढीदो पुण ओदिण्णो सासणं ण पापुणदि । भूदवलिणाहणिम्मलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥ ३४८ ॥ उपशमश्रेणीतः पुनरवतीर्णः सासनं न प्राप्नोति । भूतबलिनाथनिर्मलसूत्रस्य स्फुटोपदेशेन ॥ ३४८ ॥ अर्थ-उपशमश्रेणीसे उतरा हुआ जीव सासादनको नहीं प्राप्त होता क्योंकि पूर्व अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकर उपशमश्रेणी चढा है इसलिये उसके अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं संभव होता । इसप्रकार भूतवलि मुनिनाथके कहे हुए महाकर्मप्रकृति प्राभृत नामा पहले धवल शास्त्रमें पूर्वीपर विरोधरहित निर्मल प्रगट उपदेश है । उसीसे हमने भी निश्चय किया है ॥ ३४८॥ ___ आगे उपशमश्रेणी चढनेवाले बारहप्रकारके जीव हैं उनकी क्रिया विशेषता कहते हैं पुंकोधोदयचलियस्सेसाह परूवणा हु पुंमाणे । मायालोभे चलिदस्सत्थि विसेसं तु पत्तेयं ॥ ३४९ ॥ पुंक्रोधोदयचटितस्य शेषा अथ प्ररूपणा हि घुमाने । मायालोभे चटितस्यास्ति विशेषं तु प्रत्येकम् ॥ ३४९ ॥ अर्थ-पूर्व कहीं सर्व प्ररूपणा वे पुरुषवेद और क्रोधकषाय सहित उपशम श्रेणी चढनेवाले जीवकी कहीं हैं और पुरुषवेद संज्वलन मान व माया व लोभसहित उपशमश्रेणी चढनेवालोंके क्रियाविशेष है । वही आगे कहते हैं ॥ ३४९॥ दोण्हं तिण्ह चउण्हं कोहादीणं तु पढमठिदिमित्तं । माणस्स य मायाए वादरलोहस्स पढमठिदी ॥ ३५०॥ द्वयोः त्रयाणां चतुर्णा क्रोधादीनां तु प्रथमस्थितिमात्रम् । मानस्य च मायाया बादरलोभस्य प्रथमस्थितिः ॥ ३५० ॥ अर्थ-क्रोधके उदयसहित श्रेणी चढनेवालेके क्रमसे चारों कषायोंका उदय होता है, मानसहित चढनेवालेके क्रोधके विना तीनका ही उदय है, मायासहित चढनेवालेके माया ल. सा. १३
SR No.022409
Book TitleLabdhisara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages192
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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