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________________ ( ५९ ) 'षड्दर्शनपशुपायांश्चारयन् जैनवाटके' सज्जनो ! इस श्लोक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध को सुनकर आप लोग खूब जान गये होंगे कि पूर्व समय पर आपस में विद्वानों के हँसी ठठोल भी कैसे होते थे । ये महानुभाव हेमचन्द्राचार्य व्याकरण से लेकर दर्शन शास्त्र पर्यंत सर्व विषय में अप्रतिम आचार्य थे । सज्जनो! जैसे कालचक्र ने जैनमत के महत्व को ढांक दिया है वैसे ही उसके महत्व को जानने वाले लोग भी, अब नहीं रहगये । ‘रज्जब साचे । सूर को वैरी करै बखान' । यह किसी भाषाकवि ने बहुत ही ठीक कहा है । सज्जनो! आप जानते हो मैं वैष्णवसम्प्रदाय का आचार्य हूं यही नहीं है मैं उस सम्प्रदाय का सर्वतोभाव से रक्षक हूं और साथ ही उसकी तरफ कड़ी नजर से देखने वाले का दीक्षक भी हूं तो भी भरी मजलिस में मुझे कहना सत्य के कारण आवश्यक हुआ है कि जैनों का प्रन्थ समुदाय, सारस्वत महासागर है । उसकी प्रन्थसंख्या इतनी अधिक है कि उन ग्रन्थों का सूचीपत्र भी एक महा निबंध हो जायगा।" फिर आगे लिखा है कि-"सज्जनो ? जैन मत का प्रचार कब से हुआ इस वारे में लोगों ने नाना प्रकार की उछल कूद की है और अपने मनो नीत कल्पना की है । और यह बात ठीक भी है जिसका जितना ज्ञान होगा वह उस वस्तु को उतनाही और वैसाही समझेगा"। आगे लिखा है कि-"इसमें किसी प्रकार का उन नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादि दर्शनों से भी पूर्व का है तब ही तो भगवान् वेद व्यास महर्षि ब्रह्म सूत्रों में कहते हैं:-'नैकस्मिन्नसम्भवात्' सज्जनों ! जब वेद व्यास के ब्रह्मसूत्रप्रणयन के समय पर जैन मत था तब तो उसके खण्डनार्थ उद्योग किया गया, यदि वह पूर्व में नहीं था तो वह खण्डन कैसा और किस का ? सज्जनों ! समय अल्प है और कहना बहुत है इससे छोड़ दिया जाता है नहीं तो बात यह है कि वेदों में अनेकांत बाद का मूल मिलता है । सज्जनों ! मैं आप को वेदान्तादि दर्शन शास्त्रों का और जैनादि दर्शनों का कौन मूल है यह कह
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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