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________________ ( ५७ ) स्थान में एकत्र हुये हैं अवश्य ही इसे सौभाग्य मानना और कहना चाहिये, क्योंकि वैदिक मत और जैन मत सृष्टि की आदि से बराबर अविच्छिन्न चले आये हैं और इन दोनों मजहबों के सिद्धान्त विशेष घनिष्ठ समीप संबन्ध रखते हैं जैसा कि पूर्व में मैं कह चुका हूँ और जैसा कि सत्कार्य वाद, सत्कारण वाद, परलोकास्तित्व, आत्मा का निविकारत्व, मोक्ष का होना और उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पाप से जन्मान्तर में फल भोग, व्रतोपवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित व्यवस्था, महाजन पूजन, शब्द प्रमाण इत्यादि समान हैं, बस तो इसी हेतु मुझे यहाँ यह कहते हुए मेरा शरीर पुलकित होता है कि आज का यह हमारा जैनों के सङ्ग एक स्थान में उपस्थित होकर संभाषण वह है कि जो चिरकाल के बिछड़े भाई भाई का होता है । सज्जनों ! यह भी याद रखना जहाँ भाई भाई का रिस्ता है वहाँ कभी कभी लड़ाई की भी लीला लग जाती है परन्तु याद रहे उस्का कारण केवल अज्ञानही होता है। __ इस देश में आजकल अनेक अल्पज्ञ जन बौद्ध मत और जैन मत को एक जानते हैं और यह महा भ्रम है । जैन और बौद्धों के सिद्धान्त को एक जानना ऐसी भूल है कि जैसे वैदिक सिद्धान्त को मान कर यह कहना कि वेदों में वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं है अथवा जाति व्यवस्था नहीं है। ___ आगे फिर लिखा है कि "अज्ञों की दन्तकथा है कि जैन और बौद्ध एक समान हैं; सज्जनो ! बुरा न मानो और बुरा मानने की बात ही कौन सी है जब कि खाद्यखण्डनकार श्रीहर्ष ने स्वयं अपने प्रन्थ में बौद्ध के साथ अपनी तुलना की है और कहा कि हम लोगों से [याने निर्विशेषाद्वैत सिद्धान्तियों से] और बौद्धों से यही भेद है कि हम ब्रह्म की सत्ता मानते हैं और सब मिथ्या कहते हैं, परन्तु बौद्धशिरोमणि माध्यमिक सर्व शून्य कहता है तब तौ जिन जैनोंने सब कुछ माना उनसे नफरत करनेवाले कुछ जानतेही नहीं और मिथ्या द्वेष मात्र करते हैं यह कहना होगा। सज्जनों ! जैन मत से और बौद्ध सिद्धान्त से जमीन आस्मान का अन्तर है। उससे एक जान . ..
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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