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________________ पुस्तकों में कोई चाहे जैसा क्यों न लिखे क्योंकि लेखनी अपने हाथ की होती है। वेदव्यास जी के और शंकर स्वामी के लेखोंपर चाहे उनके मतानुयायी विश्वास रक्खें, किन्तु अन्य नहीं रख सकते। विचारने का स्थान है कि कई वैदिकों ने भी आपको अवैदिक बतलाया है और अद्वैतवाद पर कटाक्ष किया है। यह बात पाठक उपर्युक्त लेख से भली भाँति समझ सकते हैं । आनन्दागिरि कृत शंकरदिग्विजय और माधवकृत शंकरदिग्विजय में जैनमत के खण्डन में जो जैन साधुओं के उपकरण और जैन साधुओं से वादानुवाद लिखे हैं वह नितान्त झूठ और कल्पित हैं क्योंकि जैनशास्त्रों में जो बातें नहीं हैं वैसी कल्पित बातें प्रश्नोत्तर रूप में लिखकर जैनधर्म को खण्डन करना समझलिया है परन्तु ऐसा करने से क्या होसकता है ? जिसको इस बात के संबन्ध में सत्यासत्य का निर्णय करना हो वह जैनशास्त्र और शंकर दिग्विजय यह दोनों को मिलाकर देखे तो मालूम होजायगा। व्यासजी से और शंकर स्वामी से स्याहाद न्याय का खंडन न होसका, क्योंकि दो चार शब्द या वाक्य अपने रचे पुस्तको में लिख देनेसे खंडन नहीं कहा जा सकता, खंडन उसका नाम है कि जिस युक्ति और प्रमाण से दूसरे की दलीलें तोड़ी जावें? बस इसीसे कह सकते हैं कि स्याद्वाद न्याय का खंडन उनसे न हो सका । खंडन तो दूरही रहा परंतु वे स्याद्वाद न्याय को पूरा पूरा समझभी नहीं सके और कितनी बातों में जो शंकर स्वामी ने स्याद्वाद न्याय का गुप्त सहारा लिया है वह स्पष्ट दिखाई देता है देखिए ? । अद्वैत'मीमांसा में लिखा है कि: औपनिषद् सिद्धान्तों के व्याख्याता ने विषय भेद से चारवर्ग बनाये हैं (१) ब्रह्म (२) जगदुत्पत्ति (३) आत्मा और (४) मुक्ति (जगदुत्पत्ति के ओर निरीक्षण करने से स्पष्ट विदित होता है कि शंकराचार्य ने कुछ जैन सिद्धान्तों का आधार लिया है और कुछ वेदादि अपर सिद्धान्तों 'का) 'जगदुत्पत्ति के संबन्ध में पर और अपर विद्या के नाम से दो विभाग १-यह पुस्तक महादेव राजाराम बोहम्र एम्. ए. ने केसरी पत्र के एक लेख के आधार से लिखी है और भार्यभूषण प्रेस पूना में १८९३ ई. में छपी है। .
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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