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________________ ( ४९ ) यहाँ पर इससे विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं मालूम होती, अवसर मिला तो फिर किसी स्थानपर इस विषय की मीमांसा की जायगी । ईश्वर को जगत्कर्ता माननेवालों ने सृष्टि की तरह, मुक्ति के वारे में जो २ कल्पनाएँ की हैं उसका यह नमूना है: कई लोक यह दलील करते हैं कि:-"शंकराचार्य ऐसे विद्वानों का यह मत है कि सब संसार ब्रह्मरूप है और नाना प्रकार का जो प्रपञ्च दिखाई देता है वह सब मायाजन्य है। इसीलिए द्वैत मानना ठीक नहीं, अर्थात् अद्वैत है। जगत् का निमित्त और उपादान कारण ब्रह्मही है । जगत् सत्य अपनेको भास होता है इसका कारण माया है. और माया का स्वरूप अनिर्वाच्य है । माया को “सत् " याने, 'है' भी नहीं कह सकते, अथवा “ असत', याने 'नहीं' भी नहीं. कह सकते हैं । है ऐसा कहें. तो माया. परमार्थ दृष्टि से भ्रमात्मक है, नहीं ऐसा कहें तो व्यवहार दृष्टि से माया सत्य है । शंकरस्वामी के मत से जीव और परमात्मा दो नहीं हैं अर्थात् एकही है" इस पर श्रीमान् हेमचन्द्राचार्यजी महाराज का जो कथन है वह सुनिए : “माया सती चेत् इयतत्त्वसिद्धिरथासती हन्त कुतः प्रपञ्चः । मायैव चेदर्थसहा च तत् किम्, माता च वन्ध्या च भवेत् परेषाम् ॥१॥ भावार्थ-यदि माया सत् रूप है तो दो तत्त्व की सिद्धि हुई-एक ब्रह्म और द्वितीया माया (इससे तो ब्रह्माद्वैतवाद के मूलमेंही कुठार मारना हुआ) यदि असत् रूप है तो आकाशपुष्पवत् अवस्तु रूपहोनेः से नाना प्रकार के प्रपञ्च को मायाजनित कहना किस रीति से संभव हो सकता है अर्थात् असंभव है। जिसको माता कहना और उसीको बन्ध्या १ अविद्या. ७
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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