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________________ नित्य परमेश्वर में व्यापक इच्छा का विरोध आता है । इससे कह सक्ते हैं कि उपर्युक्त बात युक्तियुक्त नहीं मालूम होती। . कई ऐसा भी मानते हैं कि- ईश्वर वायु चलाता है, मेघ वर्षाता है, और जो कुछ होता जाता है, वह सब ईश्वर ही करता है उसकी शक्ति अगाध है, इसके उत्तर में हम पूछते हैं कि ईश्वर को ऐसे कार्य करने में क्या कुछ लाभ है ? कि जो इतना अगाध परिश्रम करता रहता है। यदि कहोगे कि लाभ है; तो क्या अभीतक असली स्वरूप में कुछ न्यूनता रहगई है ! कि जो परिश्रम करके मिलाना चाहता है ? । यदि कहोगे कि ईश्वर को कुछ मिलाना नहीं है तो विचार करने का स्थान है कि फिर उसके समान दूसरा अज्ञानी ही कौन है कि जो विनाही कुछ लाभ के इतना निरर्थक श्रम करता रहता है। कई कहते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि इस वास्ते रची है कि इस विचित्र रचना को देख जीव मेरे पर विश्वास लावें। देखिए-महाशय ! यह कैसी तर्क है! । संसारी जीवों को विश्वास कराने की अभिलाषा ईश्वर को क्यों हुई? क्या संसारी जीवों से किसी प्रकार का ईश्वर को व्यापार (रोजगार) करना था ? कि जिससे प्रथमही यह बन्दोबस्त करलिया कि मेरा विश्वास होगा तो मेरी हुंडी पत्री संसार में चलेगी। क्या आपका जगनियन्ता प्रभु इतना लालची है? जो संसारी जीव आपके ईश्वरपर विश्वास न रक्खें तो क्या इसमें ईश्वर की कुछ हानि है ? यदि कहोगे कि न तो लाभ है और न हानि है तो फिर सृष्टि को विश्वास लाने के लिये संसार रचना करने का परिश्रम उठाने का क्या प्रयोजन हुआ ! अतएव जगत् ईश्वरकृत सिद्ध नहीं होता । आश्चर्य है कि ईश्वरवादी ऐसी ऐसी कमजोर तर्क करते हुए कुछ विचार ही नही करते हैं ! जगत् का कर्ता ईश्वर को माननेवाले जैसा मन्तव्य जगत्कर्तृत्व के संबन्ध में रखते हैं वैसाही आश्चर्यजनक मन्तव्य मुक्ति के भी संबन्ध में रखते हैं । संसारी जीवों के लिए अन्तिम साध्य मुक्ति है। जितनी क्रियाजीव धार्मिक बुद्धि से करता है वह संसार से मुक्त होकर आध्यात्मिक
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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