SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५ ) सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥ ३ ॥ ऋग्वेदसंहिता १० | १९१ भावार्थ- तप से सत्य और सत्य से अनन्तर रात्रि हुई तदनन्तर समुद्र व पश्चात् उसके संवत्सर, अहोरात्र यथाक्रम उत्पन्न होते भए ; धाता ने सूर्य चंद्रमा को यथापूर्व कल्पना किए और आकाश, पृथ्वी, अंतरिक्ष आदि की कल्पना की; अर्थात् रचे । पूवोक्त मंत्र ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों में भी हैं। अब तैत्तिरीय ब्राह्मण में किस प्रकार का लेख है सो देखिए:आपो वा इदमंग्रे सलिलमासीत् । तेन प्रजापतिरश्राम्यत् । कथमिदं स्यादिति ॥ सोऽपश्यत्पुष्करपर्णे तिष्ठत् । सोऽमन्यत । अस्ति वैतत् । यस्मिन्निदमधितिष्ठतीति ॥ स बराह रूपं कृत्वापन्यमज्जत् । स पृथिवीमध आर्च्छत् । तस्या उपहत्योदमज्जत् ॥ तत्पुष्करपर्णेऽप्रथयत् । यदप्रथयत् । तत्पृथिव्यै पृथिवित्वम् ॥ १ ॥ तैत्तिरीयब्राह्मण अष्ट० १ । अ० १ । अ० ३ भावार्थ - प्रथम जल था उसके ऊपर पृथ्वी उत्पन्न हुई इत्यादि वर्णन है उक्त वर्णन के अनुसार (किन्तु कुछ अन्तर वाला) वर्णन तैत्तिरीयसंहिता में है: देखिए - आपो वा इदमने सलिलमासीत् । तस्मिन्प्रजापतिवयुर्भूत्वाऽचरत्स इमामपश्यत्तां वराहो भूत्वाऽहरतां
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy