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________________ करते हैं । हा! यदि किसी भी ग्रन्थ को अच्छी तरह समग्र पढ़कर पश्चात् निष्पक्षपात बुद्धि से समालोचना की जाय, तो भी श्रेय है परन्तु विना पढ़े अथवा विना विचार किये किसी भी विषयपर अपना अभिप्राय देदेना यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। पढ़ और बिचारकर के जो किसी ग्रन्थ की समालोचना की जाय और उसमें कोई विद्वान् भूल भी बतलावे तो कोई हर्ज की बात नहीं है, क्योंकि “ गच्छतः स्खलनं न दोषाय " इस न्याय से निर्दोषीही कहा जा सकता है। परन्तु इतनी बात हम अवश्य कह सकते हैं कि-चाहे किसी भी ग्रंथ को पढ़कर और उस सम्बन्ध में विचार करने के बाद आलोचना की जाय तो विशेषतया भूल होने का संभव नहीं रह सकता। इस निबंध में वेद और ब्राह्मणों की ऋचाओं (मंत्रो) के द्वारा भी यह बतला दिया गया है कि सृष्टि का कर्ता ईश्वर सिद्ध नहीं हो सकता। परन्तु साथ में यह कह देना भी अनावश्यक न होगा कि उन मन्त्रों के अर्थबदलने में अथवा अप्रामाणिक ठहराने में हठी और दुराग्रही कमी नहीं करेंगे ! किन्तु चाहे हठी दुराग्रही न माने तथापि विचारशील मनुष्य इस ग्रन्थ से कुछ लाभ उठावेगे ऐसा मेरा विश्वास है। प्रस्तुत भारत वर्ष में आर्य (हिन्दू) लोगों में से वेद वेदाङ्ग (श्रुति-स्मृति, ब्राह्मण उपनिषद् पुराण इत्यादि ) शास्त्रों को प्रमाण मानने वालों की प्रायः गणना वैदिक धर्म में ही हो सकती है और वेद के नेता वैदिक ब्राह्मण हैं । यद्यपि कई वैदिक विद्वान सत्यग्राही और निष्पक्षपाती भी हैं और उन्होंने जैनदर्शन के संबंध में अपने विचार प्रकट भी किये हैं किन्तु बहुधा वैदिक, हठी पक्षपाती और जैन दर्शन के विरोधी हुआ करते हैं, यदि कोई सत्यग्राही वैदिक साक्षर अन्य दर्शनों के धर्मग्रंथ देखकर कुछ प्रशंसा करे अथवा वेदों के संबंध में अपने कुछ स्वतन्त्र विचार दिखावे तो उसपर अन्य वैदिक कटाक्ष किये विना कभी नहीं रह सकते।इतनाही नहीं, किन्तु १ इस निबन्ध में जहां पर वैदिक ऐसा लिखा हो वहां पर सर्वत्र उक्त ग्रंथों को मानने वालों के संबंध में समझ लेना चाहिये । क्योंकि वेदों का आश्रय लेकर चलने वाले जितने मत हैं उनको वैदिक कहना कोई गैर नहीं हैं।
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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