SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८२ ) कार्य रूप जगत् ; अर्थात् नाना प्रकार के पदार्थ जो कृत्रिम दृष्टिगत हो रहे हैं उनके बनानेवाले सब संसारी जीव हैं । इसमें ईश्वर का कुछ संबंध नहीं। "स्वयं कर्म करोत्यात्मा, वयं तत्फलमश्नुते । खयं भ्रमति संसारे, स्वयमेव विनश्यति” ॥१॥ "यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । संसद्म परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणम्” ॥१॥ आत्मा अज्ञान के उदय से बुरे और ज्ञान के उदय से अच्छे आपही स्वतः कर्म करता है, और स्वयं ही भोगता है, स्वयं ही संसार में परिभ्रमण करता है और स्वयं ही एक गति से दूसरी गति में जाता है, जिसको व्यवहार में मर गया कहते हैं। जब सब कार्यों से निःस्पृही होकर आत्मा का साधन करेगा तब जन्म, मरण से छूटकर सर्व कर्मों से विमुक्त हो जायगा; फिर संसार में परिभ्रमण करना न होगा। ___माता के उदर में जिस समय जीव आता है उस समय पूर्वभव के, पुण्य पाप के बंध के अनुसार अच्छा या बुरा शरीर बनाता है और शरीर संपूर्ण होजानेपर जन्म धारण करता है । यदि आयुः पूर्ण होता है तो अधिक काल उस शरीर में रहता है । शुभ कर्मों से सुख और अशुभ कर्मों से दुःख जीव को होता है यह सरल मार्ग है। जैन शास्त्रों में अरिहन्त और सिद्ध को देव मानते हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु को गुरु मानते हैं । ज्ञान, दर्शन; चारित्र और तप को धर्म का मूल माना है। उक्त शुद्ध देव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म इन . १ अन्तरायदानलाभवीर्यभोगोपभोगणा: । हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं, निद्रा च विरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥२॥ भावार्थ-१ दानान्तराय २ लाभान्तराय, ३ वीर्यान्तराय,४ भोगान्तराय, ५ उपभोगान्तराय, ६ हास्य, ७ रति, ८ अरति, ९ भय,१० जुगुप्सा, ११ शोक, १२ काम, १३ मिथ्यात्व, १४ अज्ञान, १५ निद्रा, १६ अविरति, १० राग, १८ द्वेष । इन अठारह दोषों से रहित अरिहन्त होते हैं।
SR No.022403
Book TitleJagatkartutva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Maharaj
PublisherMoolchand Vadilal Akola
Publication Year1909
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy