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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । युक्तिः न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानाकार्तखरस्येव-श्यामिकायातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वनाद्यनंतपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु तीव्रमंदानुभवभिद्यमानदुरंतरागरसनिर्भराध्यवसानसंतानो जीवस्ततोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामत्कर्मविपाको जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वते निश्चयनयेन जीवा इत्युच्यते न कथमपि। किंच विशेषः। अंगारात् कायॆवद्रागादिभ्यो भिन्नो जीवो नास्तीति यद्भणितं तदयुक्तं । कथमिति चेत् । रागादिभ्यो भिन्नः शुद्धजीवोस्तीति पक्षः परमसमाधिस्थपुरुषैः शरीररागादिभ्यो भिन्नस्य चिदानंदैकस्वभावशुद्धजीवस्योपलब्धेरिति हेतुः किट्टकालिकास्वरूपात् सुवर्णवदिति दृष्टांतः । किं च अंगारदृष्टांतोपि न घटते । कथमिति चेत् । यथा सुवर्णस्य पीतत्वं अग्नेरुष्णत्वं स्वभावस्तथांगारस्य कृष्णवस्वभावस्य तु पृथक्त्वं कत्तुं नायाति । नहीं हैं ऐसा सर्वज्ञका वचन है वह तो आगम है। और यह स्वानुभवगर्भित युक्ति है उसे कहते हैं-जो स्वयमेव उत्पन्न हुआ ऐसा रागद्वेषकर मलिन अध्यवसान है वह जीव नहीं है क्योंकि जैसे सुवर्ण कालिमासे जुदा है उसीतरह चित्स्वभावरूप ऐसे अध्यवसानसे जुदा जीवभेद ज्ञानियोंको प्राप्त होता है वे प्रत्यक्ष चैतन्यभावको जुदा अनुभव करते हैं ।१। अनाद्यनंत पूर्वापरीभूत एक संरक्षण क्रियारूप क्रीडा करता कर्म है वहभी जीव नहीं है क्योंकि कर्मसे जुदा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर प्राप्त है वे प्रत्यक्ष अनुभवते हैं । २ । तीव्र मंद अनुभवकर भेदरूप हुआ दुरंत रागरसकर भरा अध्यवसानका संतान भी जीव नहीं है क्योंकि उस संतानसे अन्य जुदा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर प्राप्त है वे प्रत्यक्ष अनुभवते हैं । ३ । नई पुरानी अवस्थादिके भेदकर प्रवर्त हुआ जो नोकर्म वह भी जीव नहीं है क्योंकि शरीरसे अन्य जुदा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर स्वयमेव प्राप्त है वे आप प्रत्यक्ष अनुभवते हैं। ४ । समस्त जगतको पुण्यपापरूपकर व्यापता कर्मका विपाक है वह भी जीव नहीं है क्योंकि शुभाशुभ भावसे अन्य जुदा चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर प्राप्त है वे आप प्रत्यक्ष अनुभवते हैं। ५ । साता असाता रूपकर व्याप्त जो समस्त तीव्रमंदपनेरूप गुण उनकर भेदरूप हुआ जो कर्मका अनुभव वह भी जीव नहीं है क्योंकि सुखदुःखसे जुदा अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवका भेद ज्ञानियोंकर स्वयं प्राप्त होता है वे आप प्रत्यक्ष अनुभवते हैं। ६ । सिखरिनिकी तरह दो स्वरूपपनेकर मिले आत्मा और कर्म दोनोंही जीव नहीं हैं क्योंकि समस्तपने कर्मसे जुदा अन्य चैतन्य.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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