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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । णरसनस्पर्शन सूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूानि ॥ ३६ ॥ अथ ज्ञेयभावविवेक प्रकारमाह; णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को । तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विंति ॥ ३७ ॥ नास्ति मम धर्मादिर्बुध्यते उपयोग एवाहमेकः । तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका विंदंति ॥ ३७ ॥ ७४ 1 अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतराणि स्वरसविजृंभितानिवारितप्रसरविश्वघस्मरप्रचंडचिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यंतमंतर्मग्नानीवात्मनि प्रकाशमानानि टंकोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावत्वेन तत्त्वतोंतस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुमशक्यत्वान्न नाम मम संति । किंचैतत्स्वयमेव च नित्यमेवोपयुक्तस्तत्त्वत एवैकमणान्यान्यप्यसंख्येयलोकमात्रप्रमितानि विभाव परिणामरूपाणि ज्ञातव्यानि ॥ ३६ ॥ अथ धर्मास्तिकायादिज्ञेयपदार्था अपि मम स्वरूपं न भवतीति प्रतिपादयति ; - णत्थि मम धम्म आदी न संति न विद्यते धर्मास्तिकायादिज्ञेयपदार्था ममेति बुज्झदि बुध्यते ज्ञानी । किमहं । उवओग एव अहमिक्को विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोग एवाहं अथवा ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणत्वादित्य भेदेनोपयोग एवात्मा स जानाति । केन रूपेण, यतोहं टंकोत्कीर्ण ज्ञायकैकस्वभाव एकः ततो दधिखण्डशिखिरिणीवत् व्यवहारेणैकत्वेपि शुद्धनिश्चयनयेन मम स्वरूपं न भवंतीति परद्रव्यं प्रति निर्ममत्वोस्मि तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विंति २ सोलह गाथा सूत्रोंकर व्याख्यान करने और इसी उपदेशसे अन्य भी विचार लेने ||३६|| आगे ज्ञेयभावसे भेदज्ञान करनेकी रीति कहते हैं; - [ बुद्ध्यते ] ऐसा जाने कि [ धर्मादिः ] ये धर्म आदि द्रव्य [ मम नास्ति ] मेरे कुछ भी नहीं लगते मैं ऐसा जानता हूं कि [ एक उपयोग एव ] एक उपयोग है वही [ अहं ] मैं हूं [तं ] ऐसा जाननेको [ समयस्य विज्ञायका: ] सिद्धांत वा स्वपरसमयरूप समयके जाननेवाले [ धर्मनिर्ममत्वं ] धर्मद्रव्यसे निर्ममत्वपना [ विंदंति ] कहते हैं । टीका – धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, अन्यजीव ये सब ही परद्रव्य हैं वे आत्मामें प्रकाशमान हैं । कैसे हैं वे ? अपने निजरसकर प्रगट और निवारण नहीं कियाजाय ऐसा जिसका फैलाव है तथा समस्तपदार्थोंके प्रसंनेका जिसका स्वभाव है ऐसी जो प्रचंड चिन्मात्रशक्ति उसकर ग्रासीभूत होनेसे मानों अत्यंत निमग्न हो रहे हैं, तौ भी टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावपनेकर परमार्थसे अंतरंग तत्त्व तो मैं हूं और अपने स्वरूपके अभावकर ज्ञानमें आप नहीं बैठे इस कारण वे परद्रव्य उस मेरे स्वभावसे भिन्नपना होनेकर परमार्थसे बाह्य तत्त्वपनेके छोड़नेको असमर्थ हैं धर्म आदि मेरे संबंधी नहीं है । यहां ऐसा समझना कि यह आत्मा चैतन्यसे आप ही I
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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