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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । र्तृत्वव्यपदेशत्वेपि परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात्प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम् ॥ ३४॥ अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टांत इत्यत आह; जह णाम कोवि पुरिसो परव्वमिणंति जाणिदुं चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी ॥ ३५ ॥ यथा नाम कोपि पुरुषः परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति । तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुंचति ज्ञानी ॥ ३५॥ यथा हि कश्चित्पुरुषः संभ्रांत्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपत्त्या परिधाय शेयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदंचलमालंब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंच प्रतिबुध्यस्वार्पय रूपमिति ज्ञात्वा प्रत्याख्याति त्यजति निराकरोति तह्मा पच्चक्खाणं णाणं णियमा भुणेदव्वं तस्मात्कारणात् निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमानिश्चयात् मंतव्यं ज्ञातव्यमनुभवनीयमिति । इदमत्र तात्पर्य्य-परमसमाधिकाले स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धमात्मात्मानमनुभवति तदेवानुभवनं निश्चयप्रत्याख्यानमिति ॥ ३४ ॥ अथ प्रत्याख्यानविषये दृष्टांतमाह;जह णाम कोवि पुरिसो परव्वमिणंति जाणिदुं चयदि यथा नाम अहो स्फुटं वा कश्चित्पुरुषो वस्त्राभरणादिकं परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी तथा तेन प्रकारेण सर्वान् मिथ्यात्वरागादिपरभावान् पर्यायान् स्वसंवेदनज्ञाख्यान ज्ञान ही है ऐसा अनुभव करना चाहिये ॥ भावार्थ-आत्माको परभावके त्यागका कर्तापना है वह नाम मात्र है । आप तौ ज्ञानस्वभाव है । परद्रव्यको पर जाना फिर परभावका ग्रहण नहीं यही त्याग है । ऐसा जानना ही प्रत्याख्यान है। ज्ञानके सिवाय कुछ भी दूसरा भाव नहीं है ॥ ३४॥ ___ आगे पूछते हैं कि ज्ञाताके प्रत्याख्यान ज्ञान ही कहा है इसका दृष्टांत क्या है ? उसके उत्तररूप दृष्टांतदार्टीतकी गाथा कहते हैं;-[ यथा नाम] जैसे लोकमें [कोपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ परद्रव्यं इति ज्ञात्वा ] परवस्तुको ऐसा जानता है कि यह परवस्तु है तब ऐसा जान [ त्यजति] परवस्तुको त्यागता है [तथा ] उसी तरह [ ज्ञानी] ज्ञानी [सर्वान् ] सब [ परभावान् ] परद्रव्योंके भावोंको [ज्ञात्वा ] ये परभाव हैं ऐसा जानकर [विमुंचति ] उनको छोड़ता है ॥ टीकाजैसे कोई पुरुष धोबीके घरसे दूसरेका वस्त्र लाकर उसे भ्रमसे अपना समझ ओढकर सोगया । आप ऐसा नहीं जाना कि यह दूसरेका है। उसके बाद दूसरेने उस वस्त्रका पल्ला ( कोंना ) पकड खेंचकर उघाड़के नंगा किया और कहा कि "तू शीघ्र जाग . सावधान हो मेरा वस्त्र बदले में आगया है सो मेरा मुझे दे" ऐसा वारंवार (बहुतबार) . १ कोऽपि इत्यपि ग. पुस्तके पाठः। २ सुप्यमानः। ३ झटिति ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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