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________________ ५९ समयसारः। धाम्ना निरुंधति ये धामोद्दाममहस्तिनां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरंतोऽमृतं वंद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥२४॥"॥२६॥ ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को। ण दुणिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो ॥ २७ ॥ व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः ।। न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः ॥ २७ ॥ इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समवर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेकस्कंधव्यवहारवद्व्यवहारमात्रेणैवैकत्वं न पुनर्निश्चयतः । निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोइत्याचार्यस्तुतिश्च सव्वावि हवदि मिच्छा सर्वापि भवति मिथ्या तेण दु आदा हवदि देहो तेन त्वात्मा भवति देहः । इति ममैकांतिकी प्रतिपत्तिः । एवं पूर्वपक्षगाथा गता ॥ २६ ॥ हे शिष्य यदुक्तं त्वया तन्न घटते यतो निश्चयव्यवहारनयपरस्परसाध्यसाधकभावं न जानासि त्वमिति;-ववहारणयो भासदि व्यवहारनयो भाषते ब्रूते । किं ब्रूते । जीवो देहो य हवदि खलु इक्को जीवो देहश्च खल्वेकः ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो न तु निश्चयस्याभिप्रायेण जीवो देहश्च लोकोंका मन हरलेते हैं और दिव्यध्वनि ( वाणी )कर भव्योंके कानों में साक्षात् सुख अमृत वरसाते हैं तथा एक हजार आठ लक्षणोंको धारण करते हैं ऐसे हैं । इत्यादिक तीर्थकरोंकी स्तुति है वह सभी मिथ्या ठहरेगी। इसलिये हमारे तो यही एकांतसे निश्चय है कि आत्मा है वह शरीर ही है पुद्गलद्रव्य ही है । ऐसा अप्रतिबुद्धने कहा । उसको आचार्य उत्तर देते हैं कि इसतरह नहीं है तूने नयविभाग नहीं समझा है ॥ २६ ॥ ___ वह नयविभाग ऐसा है उसको गाथामें कहते हैं;-[ व्यवहारनयः] व्यवहारनय तो [ भाषते] ऐसा कहती है कि [ जीवः च देहः ] जीव और देह [एकः खलु] एक ही [भवति ] है [च ] और [ निश्चयनयस्य] निश्चयननयका कहना है कि [ जीवः देहः तु] जीव और देह ये दोनों तो [कदापि] कभी [एकार्थः ] एकपदार्थ [न] नहीं हो सकते ॥ टीका-जैसे इस लोकमें सुवर्ण और चांदीको गलाकर एक करनेसे एक पिंडका व्यवहार होता है उसी तरह आत्माके और शरीरके परस्पर एक जगह रहनेकी अवस्था होनेसे एकपनेका व्यवहार होता है । इसतरह व्यवहारमात्रकर ही आत्मा और शरीरका एकपना है परंतु निश्चयसे एकपना नहीं है क्योंकि पीले और सफेद स्वभाववाले सोना चांदी हैं उनको जब निश्चयसे विचारा जाय तब अत्यंत भिन्नपना होनेसे एक पदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिये अनेकपना ही है । उसीतरह आत्मा और शरीर उपयोग तथा अनुपयोगस्वभाव हैं। उन दोनोंके अत्यंत भिन्नपना होनेसे एक पदार्थपनेकी प्राप्ति नहीं है इसलिये अनेकपना •
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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