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________________ ५३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ सर्वविशुद्धज्ञानचैव मोक्षमार्गत्वात् आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः । “दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गे मुमुक्षुणा ॥ २३९ ॥” ४११॥ मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय। तत्थेव विहर णिचं मा विहरसु अण्णव्वेसु ॥ ४१२॥ मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायख तं चेतयख । तत्रैव विहर नित्यं मा विहारिन्यद्रव्येषु ॥ ४१२ ॥ ___ आ संसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापय निश्चितमात्मानं । तथा चित्तांतरनिरोधेनात्यंतमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व । तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व । तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षणविजृभमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव अप्पाणं जुंज मोक्खपहे हे भव्य! आत्मानं योजय संबंधं कुरुष्व केवलज्ञानाद्यनंतचतुष्टयस्वरूपशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयलक्षणे मोक्षपथे मोक्षमार्गे ॥ ४११ ॥ अथ निश्चयरत्नत्रयात्मकः शुद्धात्मानुभूतिलक्षणो मोक्षमार्गो मोक्षार्थिना पुरुषेण सेवितव्य इत्युपदिशति;-मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि हे भव्य! आत्मानं स्थापय क? शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरनत्रयस्वरूपे मोक्षपथे । चेदयहि तमेव करनेकी सूचनाका २३९ वां श्लोक कहते हैं-दर्शन इत्यादि । अर्थ-जिस कारण आत्माका यथार्थरूप दर्शन ज्ञानचारित्रका त्रिकस्वरूप है इस कारण मोक्षके इच्छक पुरुषोंकर एक यही मोक्षमार्ग सदा सेवने योग्य है ॥ ४११ ॥ अब यही उपदेश गाथासे कहते हैं;-हे भव्य तू [ मोक्षपथे ] मोक्षमार्ग में [ आत्मानं ] अपने आत्माको [ स्थापय ] स्थापनकर [च तं एव ] उसीका [ध्यायख ] ध्यानकर [तं चेतयख ] उसीको अनुभवगोचर कर [ तत्रैव नित्यं विहर ] और उस आत्मामें ही निरंतर विहार कर अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः] अन्यद्रव्योंमें मत विहारकर ॥ टीका-आचार्य उपदेश करते हैं कि हे भव्य ! अनादि संसारसे लेकर यह आत्मा अपनी बुद्धिके दोषसे परद्रव्यमें रागद्वेषादि करनेमें नित्य ही तिष्ठता हुआ प्रवर्त रहा है तौभी तू उसको अपनी बुद्धिके ही गुणसे उन पर द्रव्योंमें रागद्वेषसे छुड़ाके दर्शन ज्ञानचारित्रमें निरंतर तिष्ठता अति निश्चल स्थापनकर । उसीतरह समस्त अन्य चिंताओंका निरोध कर अत्यंत एकाग्रचित्त होके दर्शनज्ञानचारित्रका ही ध्यान कर । उसी तरह समस्त कर्म और कर्मफलरूप चेतनाका त्यागकर शुद्धज्ञान चेतनामय होके दर्शन-ज्ञानचारित्रका ही अनुभवकर । उसी तरह द्रव्यके स्वभावके वश क्षणक्षणमें उदय होते जो परिणाम उसपनेसे अर्थात् तन्मय परिणाम करके
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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