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________________ अघिकारः ९] समयसारः । ५१९. “निश्शेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैव सर्वक्रियांतरविहारनिवृत्तवृत्तेः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनंतं ॥ २३९ ॥ यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशांतरं सः ॥ २३२ ॥ अत्यंतं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च प्रस्पष्टं वहारिकजीवादिनवपदार्थेभ्यो भिन्नमपि टंकोत्कीर्णज्ञाय कैकपारमार्थिक पदार्थसंज्ञं गद्यपद्यादिविचियहां भावना नाम बार बार चिंतवनकर उपयोगके अभ्यास करनेका है । सो जब सम्यग्दृष्टि हो ज्ञानी होता है तब ज्ञान श्रद्धान तो होही गया कि मैं शुद्ध नयकर समस्त कर्मोंसे और कर्मोंके फलसे रहित हूं । परंतु पूर्व बांधे हुए कर्म उदय आवें उनमें उन भावोंका कर्तापना छोड तथा पूर्व तीन कालसंबंधी उनचास भंगोकर कर्म चेतना के त्यागकी भावनाकर और इन सब कर्मोंके फल भोगनेके त्यागकी भावनाकर एक चैतन्यस्वरूप आत्माको ही अनुभव करे । यही भोगना बाकी रहा है सो अविरत देशविरत प्रमत्तसंयत अवस्थामें तो ज्ञान श्रद्धानमें निरंतर भावना है ही परंतु जब अप्रमत्तदशा हो एकाग्र चित्तकर ध्यान करे तब केवल चैतन्य मात्र आत्मामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोगरूप होय तब निश्चय चारित्ररूप शुद्धोपयोगभावसे श्रेणी चढ केवलज्ञान उपजाता है । उससमय इस भावनाका फल कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप होना है । फिर अनंतकालतक ज्ञान चेतनारूप ही हुआ वह आत्मा परमानंदमें मग्न रहता है || अब इसी अर्थका कलशरूप २३१ वां काव्य कहते हैं — निःशेष इत्यादि । सकल कमोंके फलका त्यागकर ज्ञान चेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहता है कि पूर्वोक्त प्रकार सकल कर्मोंके फलका संन्यास ( त्याग ) करनेसे मैं चैतन्यलक्षणवाले आत्मतत्त्वको ही अतिशयकर भोगता हूं और इसके सिवाय अन्य जो उपयोगकी क्रिया तथा बाह्यकी क्रिया उसमें प्रवृत्तिसे रहित वर्तनेवाला अचल हूं । सो मेरे यह कालकी आवली प्रवाहरूप अनंत है वह इसीको भोगनेरूप जाओ, . उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें मत जाओ ॥ भावार्थ - ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि भावना करते हुए मानो साक्षात् केवली ही हुआ । सो ऐसा ही रहना अनंतकालतक चाहता है । वह ठीक है क्योंकि इसी भावनासे केवली होता है । केवल ज्ञान उपजनेका परमार्थ उपाय यही है, बाह्य व्यवहार चारित्र है वह इसीका साधनरूप है । तथा इसके विना व्यवहार चारित्र शुभकर्मको बांधता है मोक्षका उपाय नहीं है ॥ फिर २३२ वां काव्य कहते हैं- – यः पूर्व इत्यादि । अर्थ- जो पुरुष पूर्वकालमें अज्ञानभावसे किये कर्मरूप विषवृक्षके उदय आये फलको स्वामी होके नहीं भोगता और 1 १ सर्वं यत्क्रियांतरं शुद्धचेतनातिरिक्तविभावरूपं न तु विहरणं नाम शुद्धसंवित्तेः सत्त्वेम भवनं तस्मानिवृत्ता वृत्तिर्ज्ञानचेतना यस्य तस्य तथाभूतस्येत्यर्थः । २ खर्गादिसुखं हि कर्मजन्यं मोक्षे तु तदभावात् अनाकुलत्वलक्षणशर्मसद्भावाच्च निष्कर्मशर्ममयत्वमिति ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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