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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । व्यवस्थितं वारिधिस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च कांचनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषकांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषमात्मस्वभावमुतु भासदि इत्यादि परिहारसूत्रचतुष्टयं । अथ परमोपेक्षालक्षणशुद्धात्मसंवित्तिरूपनिश्चयस्तुतिमुख्यत्वेन जो इंदिए जिणित्ता इत्यादि सूत्रत्रयं । एवं गाथाष्टकसमुदायेन षष्ठस्थलं । ततःपरं निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानमेव विषयकषायादिपरद्रव्याणां प्रत्याख्यानमिति कथनेन गाणं सव्वे भावा इत्यादि सप्तमस्थले गाथाचतुष्टयं । तदनंतरमनंतज्ञानादिलक्षणशुद्धात्मसम्यकूश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकस्वसंवेदनमेव भावितात्मनः स्वरूपमित्युपसंहारमुख्यतया अअनुभव करनेसे मोहसंयुक्तपना अभूतार्थ है असत्यार्थ है । भावार्थ-आत्मा पांच तरहसे अनेकरूप दीखता है । पहले तो अनादिकालसे कर्मपुद्गलके संबंधसे बंधाहुआ कर्मपुद्गलसे स्पर्शरूप दीखता है तथा कर्मके निमित्तसे हुए नरनारकादिपर्यायोंमें भिन्न २ स्वरूप दीखता है । शक्तिके अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं बढते भी हैं, यह वस्तुका स्वभाव है । इसलिये नित्यनियत एकरूप नहीं दीखता । दर्शन ज्ञान आदि अनेकगुणोंसे विशेषरूप दीखता है । कर्मके निमित्तसे उत्पन्न हुए मोह राग द्वेषादिक परिणामोंकर सहित सुखदुःखरूप दीखता है । यह सब अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनयका विषय है । उस दृष्टि (अपेक्षा) से देखा जाय तो सब ही सत्यार्थ है परंतु आत्माका एकस्वभाव नयसे ग्रहण नहीं होता और एकस्वभावके विना जाने यथार्थ आत्माको कैसे जानसके, इसकारण दूसरे नयको-इसके प्रतिपक्षी शुद्ध द्रव्यार्थिकको ग्रहणकर एक असाधारणज्ञायक मात्र आत्माका भाव लेकर सब परद्रव्योंसे भिन्न, सब पर्यायोंमें एकाकार, हानिवृद्धिसे रहित विशेषोंसे रहित नैमित्तिक भावोंसे रहित शुद्धनयकी दृष्टि से देखा जाय तब सभी (पांच) भावोंकर अनेक प्रकारपना है वह अभूतार्थ है-असत्यार्थ है । यहां ऐसा जानना कि वस्तुका स्वरूप जो अनंतधर्मात्मक है वह स्याद्वादसे यथार्थ सिद्ध होता है । आत्मा भी अनंतधर्मा है उसके कितने ही धर्म तो स्वाभाविक हैं और कितनेही पुद्गल के संयोगसे होते हैं । जो कर्मके संयोगसे होते हैं उनसे तो आत्माके संसारकी प्रवृत्ति होती है उससंबंधी सुखदुःखादिक होते हैं उनको भोगता है । यह इस आत्माके अनादि अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है, अनादि अनंत एक आत्माका ज्ञान नहीं है । उसको बतलानेवाला सर्वज्ञका आगम है । उसमें शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर यह बतलाया है कि आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है वह अखंड है नित्य है अनादिनिधन है । इसीके जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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