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________________ समयसारः। अधिकारः ९] । ४७७ कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥ २२० ॥ रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयंति ये तु ते । उत्तरंति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरांधबुद्धयः ॥ २२१॥" ॥ ३७२ ॥ गिदियसंथुयवयणाणि पोग्गला परिणमंति वहुयाणि । ताणि सुणिऊण रूसदि तू सदि य अहं पुणो भणिदो॥ ३७३ ॥ मिकशिष्यचित्तस्थानुरागादीन जानाति बहिरंगशब्दादिविषयाणां रागादिनिमित्तानां घातं करोमीति निर्विकल्पसमाधिलक्षणभेदज्ञानाभावाचिंतयति तस्य संबोधनार्थ पूर्व गाथाषट्रेन सह सूत्रसप्तकं गतं ॥३७२॥ अथ व्यवहारेण कर्तृकर्मणोर्भेदः, निश्चयेन पुनर्यदेव कर्तृ तदेव कर्मेत्युपदिशति;रूसदि तूसदि य एकेंद्रियविकलेंद्रियादिदुर्लभपरंपराक्रमेणातीतानंतकाले दृष्टश्रुतानुभूतमिध्यात्वविषयकषायादिविभावपरिणामाधानतया असंतदुर्लभेन कथंचित्कालादिलब्धिवशेन मिथ्यास्लादिसप्तप्रकृतीनां तथैव चरित्रमोहनीयस्य चोपशमक्षयोपशमक्षये सति षड्द्र्व्यपंचास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थादिश्रद्धानज्ञानरागद्वेषपरिहाररूपेण भेदरत्नत्रयात्मकव्यवहारमोक्षमार्गसंज्ञेन व्यवहारकारणसमयसारेण साध्येन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरू क्योंकि शुद्धनयका विषयभूत जो आत्माका स्वरूप उसके ज्ञानकर रहित अंध बुद्धिवाले हैं। भावार्थ-शुद्धनयका विषय आत्मा अनंत शक्तिको लिये चैतन्य चमत्कारमात्र नित्य एक है । उसमें यह स्वच्छता है कि जैसा निमित्त मिले वैसे आप परिणमता है। ऐसा नहीं कि जो जैसा परिणमावे वैसे परिणमे अपना कुछ पुरुषार्थ नही हो । ऐसे आत्माके स्वरूपका जिनको ज्ञान नहीं है वे ऐसा मानते है कि आत्माको परद्रव्य जैसा परिणमावे वैसे परिणमता है। ऐसा माननेवाले मोहकी सेना अथवा नदी रागद्वेषादि परिणाम उनसे पार नहीं होते उनके रागद्वेष नहीं मिटता । जिसकारण अपना पुरु. षार्थ उनके होने में होवे तो उनके मेटने में भी होना चाहिये । और परके ही करनेसे हो तो वह किया ही करे अपना मेटना किस कामका ? इसकारण अपना किया होता है अपना मेंटा मिटता है इसतरह कथंचित् मानना सम्यग्ज्ञान है ॥ ३७२ ॥ आगे इस कथनको प्रगट करते हैं कि जो स्पर्श रस गंध वर्ण शब्दरूप पुद्गल परिणमें हैं वे इंद्रियोंकर आत्माके जानने में आते हैं तो भी वे जड़ हैं आत्माको कुछ नहीं कहते कि हमको ग्रहण करो । आत्मा ही अज्ञानी होके उनको भले बुरे मान रागी द्वेषी होता है ऐसा गाथामें कहते हैं;-[बहुकानि ] बहुत प्रकारके [निंदितसंस्तुतवचनानि ] निंदा और स्तुति के वचन हैं उनरूप [ पुद्गलाः परिणमंति ] पुद्गल परिणमते हैं [ तानि ] उनको [ श्रुत्वा ] सुनकर [ अहं भणितः ] यह
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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