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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ सर्व विशुद्धज्ञान अज्ञानाभावात्सम्यग्दृष्टौ तु न भवंति । एवं ते विषयेष्वसंतः सम्यग्दृष्टेर्न भवंतो नं भवंत्येव । " रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तौ वस्तुत्वं प्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित् । सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटंतो ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचार्चिः ॥ २९८ ॥ रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या नान्यद् द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरंतश्चकास्ति व्यक्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात् ॥ २१९ ॥" ।। ३६६-३७१ ॥ ४७४ अण्णदविएण अण्णदवियस्स ण कीरए गुणुप्पाओ । तह्मा उ सव्वदव्वा उष्पज्जते सहावेण ॥ ३७२ ॥ अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः । तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यंते स्वभावेन ॥ ३७२ रागादयो न संति । कस्मात् ? शब्दादीनामचेतनत्वात् । ततः स्थितं तावदेव रागद्वेषद्वयमुदयते बहिरात्मनो यावन्मनसि त्रिगुप्तिरूपं स्वसंवेदनज्ञानं नास्ति । इति गाथाषट्कं गतं ॥ ३६६-३७१॥ एवमेतदायाति शब्दादींद्रियविषया अचेतनाश्चेतना रागाद्युत्पत्तौ निश्चयेन कारणं न भवति;अण्णदविएण अण्णदद्वियस्स णो कीरदे गुणविद्यादो अन्यद्रव्येण बहिरंगनिमित्तभूतेन कुंभकारादिनाऽन्यद्रव्यस्योपादानरूपस्य मृत्तिकादेर्न क्रियते । स कः ? चेतनस्याचेत आगे कहते हैं कि अन्यद्रव्यकर अन्यद्रव्यके गुण नहीं उपजाये जाते । उसकी सूचनाका २१९ व काव्य है— रागद्वेषो इत्यादि । अर्थ — रागद्वेषका उपजानेवाला तत्वहष्टिकर देखो तो अन्य द्रव्य कुछ भी नहीं दीखता, चेतनके ही परिणाम हैं। क्योंकि यह न्याय है कि जो सब द्रव्यों की उत्पत्ति है सो अपने ही निजस्वभाव में अंतरंग में अत्यंत प्रगटरूप शोभती है । अन्य द्रव्यमें अन्यके गुणपर्यायों की उत्पत्ति नहीं है । ३६६ से ३७१ तक ॥। आगे इस अर्थको गाथामें कहते हैं; - [ अन्यद्रव्येण ] अन्यद्रव्यकर [ अन्यद्रव्यस्य ] अन्यद्रव्यके [ गुणोत्पाद: ] गुणका उत्पाद [ न क्रियते ] नहीं किया जासकता [ तस्मात्तु ] इसलिये यह सिद्धांत है कि [ सर्व द्रव्याणि ] सभी द्रव्य [ स्वभावेन ] अपने अपने स्वभावसे [ उत्पद्यंते ] उपजते हैं ।। टीका — परद्रव्य जीवद्रव्यके रागादिक उपजाता है ऐसी आशंका नहीं करना । क्योंकि अन्य द्रव्यकर अन्यद्रव्यके गुणके उत्पाद करनेका अयोग है । सब द्रव्यों में स्वभावसे ही उत्पाद है । यही दृष्टांत से दिखलाते हैं— मृत्तिका है वह कुंभभावकर उपजती हुई क्या कुंभकार के स्वभावकर उपजती है या मृत्तिका स्वभावकर ? इसतरह दो पक्ष हैं । वहां कुंभकारके खभावकर उपजती है तो कुंभके करने के अहंकार से भरे हुए जो कहो कि पुरुषकर आ
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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