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________________ अधिकारः ९ ] ४५१ इवात्मनीह निपुणैर्भर्तुं न शक्या कचिच्चिचिंतामणिमालिकेयमभितोप्येका चा नः ॥ २०९ ॥ “व्यावहारिकदृशैव केवलं कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चिंत्यते कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ॥ २१० ॥” ३४५।३४६।३४७ ३४८ ॥ समयसारः । जह सिपिओ उ कम्मं कुव्वइ ण य सो उ तम्मओ होइ । तह जीवोवि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होइ ॥ ३४९ ॥ भावकर्मणां स एव कर्ता न च पुद्गल इत्याख्याति - अत्र गाथापंचकेन प्रत्येकं गाथापूर्वार्धन सांख्यमतानुसारिशिष्यं प्रति पूर्वपक्ष:, उत्तरार्धेन परिहार इति ज्ञातव्यं ॥ ३४५|३४६।३४७|४८|| यथा लोके शिल्पी तु सुवर्णकारादिः सुवर्णकुंडलादिकर्म करोति, कैः कृत्वा ? हस्तकुट्टकाद्युपकरणैः । हस्तकुट्टकाद्युपकरणानि च हस्तेन गृह्णाति, तथापि तैः सुवर्णकुंडलादि कर्महस्त भोक्ताका भेद भी है और भेद नहीं भी है तथा कर्ता भोक्ता भी क्यों कहना ? केवल शुद्ध वस्तुमात्रका असाधारण धर्मके द्वारा अनुभव करते चैतन्यके परिणमनरूप पर्यायके भेदोंकी अपेक्षा कर्ता भोक्ताका भेद है । चिन्मात्र द्रव्य अपेक्षा भेद नहीं है । इसतरह भेद अभेद होवें तथा चिन्मात्र अनुभवमें भेद अभेद क्यों कहना ? कर्ता भोक्ता भी नहीं कहना वस्तुमात्र अनुभव करना । जैसे मणियोंकी मालामें सूत और मोतियों का विवक्षासे भेद है । मालामात्र ग्रहण करनेमें भेद अभेद विकल्प नहीं हैं । उसीतरह आत्मामें चैतन्य के द्रव्यपर्याय अपेक्षा भेदाभेद है तौ भी आत्मवस्तुमात्र अनुभव करनेपर विकल्प नहीं रहता । इसलिये आचार्य कहते हैं कि ऐसे निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमारे प्रकाशरूप है, ऐसा जैनोंका वचन है । आगे इस कथनको दृष्टांतसे स्पष्ट करते हैं उसकी सूचनाके नयविभागका २१० वां काव्य कहते हैंव्यावहारिक इत्यादि । अर्थ-व्यवहारकी दृष्टिमें तो केवल कर्ता और कर्म भिन्न दीखते हैं और जब निश्चयकर देखा जाय अर्थात् वस्तुको विचारा जाय तो कर्ता और कर्म सदाकाल एक ही देखने में आते हैं । भावार्थ — व्यवहारनय तो पर्यायाश्रित है इसमें तो भेद ही दीखता है और शुद्ध निश्चयनय द्रव्याश्रित है । इसमें अभेद ही दीखता है । इसलिये व्यवहारमें तो कर्ता कर्मका भेद है और निश्चयमें अभेद है ।। ३४५ । ३४६ । ३४७ । ३४८ ॥ आगे इस कथनको दृष्टांत से गाथाओं में कहते हैं; - [ यथा शिल्पिकः तु ] जैसे सुनार आदि कारीगर [ कर्म ] आभूषणादिक कर्मको [ करोति ] करता है [ स तु] परंतु वह [ तन्मयो न च भवति ] आभूषणादिकोंसे तन्मय नहीं होता [ तथा ] उसीतरह [ जीवोपि च ] जीव भी [ कर्म ] पुद्गलकर्मको [ करोति ]
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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