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________________ समयसारः । ३३ नमेवेति समस्तमेव निरवद्यं । “चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सतत विविक्तं दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥ ८॥” अथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपायाः प्रमाणनयनिक्षेपाः ये ते खल्वभूतार्था - स्तेष्वप्ययमेक एव भूतार्थः । प्रमाणं तावत्परोक्षं प्रत्यक्षं च तत्रोपात्तानुपात्तपरद्वारेण प्रवर्त्तमानं परोक्षं केवलात्मप्रतिनियतत्वेन वर्त्तमानं प्रत्यक्षं च तदुभयमपि प्रमातृप्रमाणप्रमेयभेदस्यानुभूयमानतायां भूतार्थमथ च व्युदस्तसमस्त भेदैकजीव स्वभावस्यानुभूयमानतायातार्था भण्यते तथाप्यभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले अभूतार्था असत्यार्थ शुद्धात्मस्वरूपं न भवंति । तस्मिन् परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्यो - भावार्थ- - यह आत्मा सब अवस्थाओं में नानारूप दीखता था उसे शुद्धनयने एक चैतन्य चमत्कार मात्र दिखलाया है सो अब सदा एकाकार ही अनुभवन करो पर्यायबुद्धिका एकांत मत रखो, ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है । और जैसे नव तत्त्वोंमें एक जीवका ही जानना भूतार्थ कहा उसी तरह एकपनेसे प्रकाशमान आत्मा के अधिगमके उपाय जो प्रमाणनय निक्षेप हैं वे भी निश्चयसे अभूतार्थ हैं उनमें भी एक आत्मा ही भूतार्थ है, क्योंकि ज्ञेय और वचनके भेदसे वे प्रमाणादि अनेक भेदरूप होते हैं। उन I से पहले प्रमाण दो प्रकार है परोक्ष और प्रत्यक्ष । जो इंद्रियोंसे भिडकर ( संबंधित होकर ) प्रवर्ते और जो विनाभिडे मनसे ही प्रवर्ते इस तरह दो परद्वारोंकर प्रवर्तमान हो वह परोक्ष है । तथा आत्मा ही से प्रति निश्चितपनेसे प्रवर्तमान हो वह प्रत्यक्ष है | भावार्थ - प्रमाण ज्ञान है । वह ज्ञान पांच प्रकारका है । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल । उनमें से मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष हैं, अवधि मन:पर्यय ये दो विकल प्रत्यक्ष हैं । और केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । ये दोनों तरहके ही प्रमाण हैं । ये दो भेद प्रमाता प्रमाण प्रमेयके भेदको अनुभवते हुए तो भूतार्थ हैं सत्यार्थ हैं और जिसमें सब भेद गौण हो गये हैं ऐसे एक जीवके स्वभावका अनुभव किये हुए अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं । नय दो प्रकार है— द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक । उनमेंसे जो द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुको द्रव्यपनेकी मुख्यतासे अनुभव करावे वह द्रव्यार्थिक नय है और पर्यायकी मुख्यतासे अनुभव करावे वह पर्यायार्थिकनय है । ये दोनों ही नय द्रव्यपर्यायको भेदरूप पर्यायकर अनुभव कराते हुए तो भूतार्थ हैं सत्यार्थ हैं और द्रव्य पर्याय इन दोनों को ही नहीं छूता हुआ ऐसे शुद्ध वस्तुमात्र जीवके स्वभाव चैतन्य मात्रका अनुभव करने - पर भेदरूप अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं । निक्षेप भी नाम स्थापना द्रव्य भावके भेद से चार तरहका है | जिसमें गुण तो हो नहीं और व्यवहारकेलिये उसकी संज्ञा करना 'वह' नाम निक्षेप है, अन्य वस्तुमें अन्यकी प्रतिमारूप स्थापना करना कि यह वोही है वह स्थापना निक्षेप है, वर्तमानपर्यायसे अन्य अतीत अनागत पर्यायरूप वस्तुको ५ समय ० •
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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