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________________ ४४४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानप्रकृतेरेकांतेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकर्तृत्वापत्तेः-जीवः कर्तेति कोपो दुःशक्यः परिहर्तुं । यस्तु कर्म आत्मनो ज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति आत्मा त्वात्मानमेवैकं करोति ततो जीवः कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव । जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च । तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुपपन्नं कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात् । न चावस्थिताऽसंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कंधस्येव प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणद्वारेणापि कार्यत्वं प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् । न चापि सकललोकवस्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसंकोचनविकाशद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचविकाशयोरपि शुष्काचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृदुःखं न भवति तथा स्वकीयकायेऽपि दुःखं न प्राप्नोति । न च तथा, प्रत्यक्षविरोधात् । ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता न तु निश्चयेनेति ? सत्यमुक्तं भवता व्यवहारेण हिंसा तथा पापमपि नारकादिदुःखमपि व्यवहारेणेत्यस्माकं सम्मतमेव । तन्नारकादि दुःखं भवताहुआ । परंतु जैनवाणी स्याद्वादरूप है इसलिये सर्वथा एकांत माननेवालेके ऊपर वाणीका कोप अवश्य होगा । तथा वाणीके कोपके भयसे विवक्षा पलटकर कहै कि आत्मा अपने आत्माका कर्ता है इसकारण भावकर्मका कर्ता तो कर्म ही है और अपना कर्ता आत्मा है इसतरह कथंचित् कर्ता आत्माको कहनेसे वाणीका कोप नहीं होगा। तो ऐसा कहना भी मिथ्या है । आत्मा द्रव्यकर नित्य है लोक परिमाण असंख्यातप्रदेशी है । सो इसमें तो कुछ नवीन करनेको ही नहीं है । भावकर्मरूप पर्यायोंका कर्ता कर्म को बतलावे तो आत्मा तो अकर्ता ही रहा तव वाणीका कोप कैसे मिटा ? । इसलिये आत्माके कर्तापन तथा अकर्तापनकी विवक्षा यथार्थ मानना ही स्याद्वाद मानना सत्य होता है । वह इस तरह है कि आत्माके ज्ञायक स्वभाव तो सामान्य अपेक्षाकर है ही परंतु ज्ञानविशेषकी अपेक्षा आपना परका भेदज्ञानके विना परको आत्मा जानता है । इस अज्ञानरूप अपने भावका कर्ता है जब उस ज्ञानविशेषकी अपेक्षाकर आत्मपरका भेद विज्ञान हो उसी कालसे लेकर भेद विज्ञानकी पूर्णता होनेपर अपनेको आप जाने और ज्ञानपरिणामकर परिणमे तब केवल ज्ञाता हुआ साक्षात् अकर्ता होता है । इसतरह मानना सत्यार्थ स्याद्वादका प्ररूपण है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप २०५ वां काव्य कहते हैं—मा कार इत्यादि । अर्थ-अर्हतके मतके जैनी जन हैं वे आत्माको सर्वथा अकर्ता सांख्यमतियोंकी तरह मत मानो। उस आत्माको भेद विज्ञान होनेके पहिले कर्ता मानो और भेदज्ञान होनेके वाद उद्धत १ व्याघातात् पाठोऽयं ख. पुस्तके ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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