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________________ अधिकारः ८] समयसारः। आत्मबंधयोधिाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनः करणमीमांसायां निश्चयतः खतो भिन्नकरणासंभवात् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणं । तया हि तौ छिन्नौ नानात्वमवश्यमेवापद्येते ततः प्रज्ञैवात्मबंधयोर्द्विधाकरणं । ननु कथमात्मबंधौ चेत्यचेतकभावनात्यंतप्रत्यासतेरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवद्व्यवहियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्येते? नियतखलक्षणसूक्ष्मांतःसंधिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि । आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वाच्चैतन्यं खलक्षणं तत्तु प्रवर्तमानं यद्यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयं तदेछिनौ संतौ नानात्वमापन्नौ इति । तथाहि-जीवस्य लक्षणं शुद्धचैतन्यं भण्यते, बंधस्य लक्षणं कर्ता आत्मा है उसके कारणका जब विचार किया जाय तब निश्चयनयकर आपसे जुदा करण नामा कारक तो असंभव है इसलिये ज्ञानस्वरूप बुद्धि ही छेदनस्वरूप करण है उस प्रज्ञाकर ही वे दोनों आत्मा और बंध छेदेहुए नानापनको अवश्य प्राप्त होते हैं अर्थात् जुदे २ हो जाते हैं । इसलिये प्रज्ञाकर ही आत्मा और बंधका जुदा जुदा करना है । यहां प्रश्न है कि आत्मा और बंध ये दोनों तो चेतकचेत्यभावकर अत्यंत निकटतासे एकसरीखे हो रहे हैं। आत्मा तो चेतक है और बंध चेत्य है सो दोनों एकरूप हुए अनुभवमें आते हैं। सो भेदविज्ञानके अभावसे एक चेतकरूप ही जो व्यवहारमें प्रवर्तते देखे जाते हैं वे प्रज्ञाकर कैसे छेदे जा सकते हैं ? उसका समाधान आचार्य करते हैं-हम ऐसा जानते हैं कि आत्मा और बंधके निश्चित स्वलक्षणकी सूक्ष्म जो अंतरंगकी संधि है उसमें इस प्रज्ञा छैनीको सावधान होके पटकनेसे दोनों जुदे जुदे हो जाते हैं । वहां आत्माका तो निजलक्षण निश्चयकर समस्त अन्यद्रव्योंसे असाधारणपनेसे जो अन्यमें न पायाजाय ऐसा चैतन्य स्खलक्षण है यह चैतन्यस्वलक्षण प्रवर्तता हुआ जिस जिस पर्यायको व्यापकर प्रवर्तता है तथा निवर्तता हुआ जिस जिस पर्यायको ग्रहणकर निवृत्त होता है वह वह समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती पर्यायोंका समूह ही आत्मा है ऐसा देखने योग्य है। यह लक्षण समस्त गुणपर्यायोंमें व्यापक है सो सभी गुणपर्यायोंका समुदाय आत्मा है ऐसा इस लक्षणसे जानना, क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है । तथा चैतन्यके समस्त सहवर्ती क क्रमवर्ती जो अनंतपर्याय हैं उसीका अविनाभावीपन है इसलिये चिन्मात्र ही आत्मा है ऐसा निश्चय करना । इसतरह दूसरा व्याख्यान है । और बंधका स्वलक्षण आत्मद्रव्यसे असाधारण रागादिक हैं, क्योंकि ये रागादिक आत्मद्रव्यसे साधारणपनको धारण करते हुए नहीं प्रतिभासते । इनके सदा ही चैतन्य चमत्कारसे भिन्नपनेकर प्रतिभासमानपन है । जितना कुछ समस्त अपने पर्यायों में व्यापनेस्वरूप चैतन्य प्रतिभासता है उतने ही रागादिक नहीं प्रतिभासते, रागादिक विना भी चैतन्यका आत्मलाभ (स्वरूपपाना ) संभवता है । जो रागादिकका
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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