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________________ अधिकारः ७ ] समयसारः । ३७१ कायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् । " रागादयो बंधनिदानमुतास्ते शुद्धचिन्मात्रमहो ऽतिरिक्ताः । आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ॥ १७४ ॥” २७६।२७७ ॥ जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जदि अण्णेहिंदु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ॥ २७८ ॥ एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । राइजदि अण्णेहिंदु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥ २७९ ॥ यथा स्फटिकमणिः शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः । रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिर्द्रव्यैः ॥ २७८ ॥ एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः । रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः ॥ २७९ ॥ यमेव नास्तीति तात्पर्यार्थः । एवं निश्चयनयेन व्यवहारः प्रतिषिद्ध इति कथनरूपेण षट्सूत्रैः पंचमं स्थलं गतं ॥ २७६ । २७७ ॥ अथ रागादयः किल कर्मबंधकारणं भणिताः, तेषां पुनः किं कारणं ? इति पृष्ठे प्रत्युत्तरमाह ; - यथा स्फटिकमणिर्विशुद्धो बहिरुपाधिं विना स्वयं रागादिभावेन न परिणमति पश्चात् स एव रज्यते, कैः ? जपापुष्पादि बहिर्भूतान्यद्रव्यैरिति दृष्टांतो गतः । एवमनेन दृष्टांतेन ज्ञानी शुद्धो भवन् स्वयं निरुपाधिचिच्चमत्कारस्वभावेन कृत्वा जपापुष्प इस व्यवहारका प्रतिषधेक है इसलिये शुद्धनय उपादेय कहा है । आगे अगले कथन की सूचनिकाका १७४ वां काव्य कहते हैं - रागादयो इत्यादि । अर्थ - यहां शिष्य फिर पूछता है कि रागादिक हैं वे तो बंधके कारण कहे और वे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मासे भिन्न (जुदे) कहे वहां पर उनके होनेमें आत्मा निमित्तकारण है कि दूसरा कोई ? ॥२७६।२७७॥ ऐसे प्रेरेहुए आचार्य इसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं; - [ यथा ] जैसे [ स्फटिकमणिः ] स्फटिकमणि [ शुद्धः ] आप शुद्ध है वह [ रागाद्यैः ] ललाई आदि रंगस्वरूप [ स्वयं न परिणमते ] आप तो नहीं परणमती [तु ] परंतु [ सः ] वह [ अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यैः ] दूसरे लाल काले आदि द्रव्यों से [ रज्यते ] ललाई आदि रंगस्वरूप परणमती है [ एवं ] इसीप्रकार [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ शुद्धः ] आप शुद्ध है [ सः ] वह [ रागाद्यैः ] रागादि भावोंसे [ स्वयं न परिणमते ] आप तो नहीं परिणमता [ तु ] परंतु [ अन्यैः रागादिभिः दोषैः ] अन्य रागादि दोषोंसे [ रज्यते ] रागादिरूप किया जाता है । टीकाजैसे निश्चयकर केवल ( अकेला ) स्फटिक पाषाण आप परिणाम स्वभावरूप होनेपर
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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